24 Sept 2012

विकल्प


उसका कोई अपना अस्पताल में पड़ा अपनी आखिरी साँसें गिन रहा था लेकिन वो चाह कर भी नहीं रो सकता था क्यूंकि बहुत लोगों की हिम्मत उसके आंसुओं पर टिकी थी | भगवान से किसी चमत्कार की उम्मीद करने के सिवा उसके पास और कोई विकल्प भी कहाँ था ( काश सच में उस दिन कोई चमत्कार हो जाता ) -

नहीं रोऊँगा , नहीं रोऊंगा ,
तेरी मीठी यादों के अब ,
सपने संजोउंगा |
नहीं रोऊंगा |

एक दिन तूने चलना सिखाया था माँ ,
आज तू ही क्यों बिस्तर पे बेसुध पड़ी ,
मेरी तुतली जुबां को सहारा दिया ,
फिर मेरे सामने क्यूँ तू चुप सी पड़ी ,
नहीं रोऊँगा , नहीं रोऊंगा ,
तेरी सारी बातों की मैं ,
माला पिरोउंगा |
नहीं रोऊंगा |

जब भी मुश्किल पड़ी , तुझे याद किया ,
बोल किसको भला अब मैं याद करूँ ,
तूने मेरे लिए कितने सजदे किये ,
तेरी खातिर कहाँ फ़रियाद करूँ ,
नहीं रोऊँगा , नहीं रोऊंगा ,
तेरे लौटने के अभी ,
ख्वाब मैं बोऊंगा |
नहीं रोऊंगा |

अब मुझमें नहीं माँ हिम्मत बची ,
अपनी गोदी में सर को छुपा लेने दे ,
मैं भी तुझसे लिपट लूँ ज़रा देर माँ ,
मेरी आँखों में आंसू भी आ लेने दे ,
मैं अब रोऊंगा , मैं अब रोऊंगा ,
तेरे पाँव माँ अपने ,
आंसू से धोऊंगा |
माँ अब रोऊंगा , मैं अब रोऊंगा |
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21 Sept 2012

स्वामी अब तो आ जाओ


जेठ की तपती दोपहर में सड़क पर एक आदमी उसे बुरी तरह पीट रहा था और बाकी तमाशबीन की तरह खड़े थे , मजे ले रहे थे | लेकिन वो थी कि जैसे उसे इस सब की आदत हो | बिना लोगों की तरफ ध्यान दिए वो सिर्फ उस सड़क की तरफ देख रही थी जो शहर की तरफ जाती थी | इस उम्मीद में कि शायद आज वो आएगा और उसे इस नर्क से बाहर निकालेगा -


कहाँ गए जी तुम बिन बोले , हम तुम्हरे बिन आधे हैं ,
दो पल में ही तोड़ दिए ; जो जनम-जनम के वादे हैं ,
बीत गए दस साल हैं तुमका ; स्वामी अब तो आ जाओ ,
ऐसा कौना काम है तुमका ; हमहूँ का बतला जाओ ,

तुम्हरी इक-टुक राह निहारें ; हम पग में ही हैं बैठीं ,
अँखियाँ हमरी रो-रोकर अपना परताप हैं खो बैठीं ,
हम कहतीं हैं स्वामी हमरे सहर गए हैं ; आवत हैं ,
सब हमका पगली बोलत हैं ; पीटत और बिरावत हैं ,
सब बोलत हैं पगली तुमका छोड़ गवा तुम्हरा स्वामी ,
राह अकारण तकती हो ; करती असुअन की नीलामी ,

झुठला दो इन सबका स्वामी , झलक एक दिखला जाओ ,
बीत गए दस साल हैं तुमका ; स्वामी अब तो आ जाओ ||


हमका कुछ भी नीक न लगे ; जग तुम्हरे बिन सूना है ,
तुम्हरे बिन मूरत कान्हा की ; जैसे एक खिलौना है ,
तुम्हरे बिन कुछ सूझत नाहीं ; कैसा दिन और कैसी रात ,
तुम्हरे बिन गेंदा निर-अर्थक ; निर-अर्थक सी है बरसात ,

पैंतीस बरस भी भये ना हमका ; हम पचपन की लगतीं हैं ,
सुध-बुध सारी खो बैठीं ; बस राह तुम्हारी तकती हैं ,
हमका तुमसे प्रेम बहुत है ; तुम ही एक सहारा हो ,
हमरी डूबी नैया का ; तुम्ही तो एक किनारा हो ,

हमरी नैया अब डूब रही ; आकार पार लगा जाओ ,
बीत गए दस साल हैं तुमका ; स्वामी अब तो आ जाओ ||
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19 Sept 2012

प्यार ??

कमरे में घुसते ही वो बोला , " पक गया हूँ भाई उससे , जो था वो कम से कम प्यार तो नहीं था | College में तो उससे बात करने के लिए तड़पा करता था | आज हमारी सिर्फ दूसरी मुलाकात थी और ऐसा लग रहा था जैसे हमारे बीच में बात करने के लिए कोई common topic ही नहीं है | "


तेरी ओर बढे फिर , कुछ देर रुक गए ,

छोटा सा ही था रस्ता , फिर भी थक गए ,

चाहा नहीं था शायद , उतनी शिद्दत से कभी तुमको ,

दो बार ही मिले हैं , उतने में पक गए ||


कुछ बोलना था तुमको , कुछ और बक गए ,

कुछ बीच में ही जैसे , कह कर अटक गए ,

खामोश ही थे दोनों , क्या बात करें आखिर ,

कुछ बात भी नहीं की , बिन बोले पक गए ||


साथ-साथ दोनों , कुछ दूर तक गए ,

उतने में ही कितने , पंगे अटक गए ,

जब आदतें ज़रा भी , मिलती नहीं हमारी ,

अच्छा ही हुआ तुमसे , जल्दी ही पक गए ||


किसी और को पकाओ ,

मेरे पास से तो जाओ ,

थोड़ा तरस तो खाओ ,

देखो हम पक गए ||

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15 Sept 2012

गुजरात - 27 फरवरी 2002


२८ फरवरी २००२ :
"हर रोज की तरह उस सुबह भी मैंने क्रिकेट की ख़बरें पढ़ने के लिए ही अखबार उठाया लेकिन उस सुबह अखबार लाल खून से रंगा था , एक दिन पहले ही गोधरा जल उठा था और कौन जानता था कि उस आग की लपटें पूरे देश को जकड़ लेंगी और हमें इंसानियत और धर्म का नंगा, खूंखार और बदसूरत चेहरा देखने को मिलेगा | मैं बहुत छोटा था तब लेकिन उस दिन मैंने पहली बार जाना कि दंगा किसे कहते हैं |"

उसने भी तो किसी को खोया था , वो उसके पड़ोस में रहती थी , शायद कोई ८-९ साल की होगी बहुत जिद्दी और बहुत प्यारी | वो उसे भैया कहती थी और दिन भर उसके साथ शरारत किया करती -


टाफ़ी का वो आधा भरा डिब्बा ,
सोचता हूँ ,
किसी को दे दूँ ,
पर उम्मीद है
तुम आओगी और तुतलाकर टाफी खिलाने की जिद करोगी |

हर रोज जब दफ्तर को निकलता हूँ ,
सोचता हूँ ,
शायद तुम दरवाजे पर ही मिलोगी ,
गाड़ी से मस्जिद तक चलने की जिद करोगी |

मैं आज भी शाम को कहीं घूमने नहीं जाता ,
बस मेज के उपर रखे लूडो को देखता हूँ ,
और सोचता हूँ ,
शायद आज शाम तो तुम लूडो खेलने की जिद करोगी |

आज भी मेरे सिरहाने पर ,
दो तकिये रखे हैं ,
सोचता हूँ ,
शायद आज रात तुम कहानियाँ सुनने की जिद करोगी |

पर
फिर सोचता हूँ ,
अपने हाथों से ही तो दफनाया था तुम्हें ,
फिर तुम कैसे आओगी , कैसे कोई जिद करोगी |

काश तुझे उस सुबह मस्जिद पर छोड़ा ही न होता ,
तो आज तुम जिन्दा होती ,
काश तुम्हारी एक जिद ना मानी होती ,
तो आज तुम जिन्दा होती ,
काश राम और अल्लाह ही न होते ,
तो आज तुम जिन्दा होती ,
काश इंसान में कुछ इंसानियत भी होती ,
तो आज तुम जिन्दा होती |

खौफ का वो मंजर भूलने की कोशिश तो करता हूँ ,
हर रोज ,
मगर ,
जिंदगी गुजारने के लिए उस मस्जिद से गुजरना भी जरुरी है |

तेरी शरारतों भरी जिद भूलने की कोशिश तो करता हूँ ,
हर रोज ,
मगर ,
कुछ देर मुस्कुराने के लिए तुझे याद करना भी जरुरी है |

कहाँ होगी तुम ,
शायद न राम के पास न अल्लाह के पास ,
तुम उस दुनिया में होगी ,
जहाँ प्यार ही अकेला मजहब होगा ,
और वही असली जन्नत होगी |
अब तक तो काफी बड़ी हो गयी होगी तुम ,
लेकिन जन्नत में भी तुम्हें हिचकी आती होंगी ,
क्योंकि मैं आज भी तुम्हे याद करता हूँ
मैं आज भी तेरी आवाज सुनता हूँ ||
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13 Sept 2012

बस यूँ ही-९


खुदा ने दी मुझे मोहलत ; मैं चाहूँ मांग लूँ तुमको ,

मैं पागल मांग बैठा था ; तेरे हर एक ही गम को ,

तू अब खुशियों की दूजी ही किसी दुनिया में रहती है

मैं अब भी हूँ तडपता ; काश खुश देखूं कभी तुझको ||
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7 Sept 2012

कांच का बर्तन


कभी मेरे घर में एक बहुत सुन्दर कांच का गुलदान रखा रहता था , एक रोज अंजाने ही वो मेरे हाथ से छूटा और टूट गया :(
इंसान की कहानी भी तो शायद ऐसी ही है -


तन एक सुन्दर कांच का बर्तन ,
कब छूटेगा , कब टूटेगा |

आसमान में उड़ते पंछी ,
साथ बुलाते हैं मुझको भी ,
दूर झुण्ड में बैठे तारे ,
पास बुलाते हैं मुझको भी ,
बोल दिया है उन्हें अभी से ,
बहुत जल्द ही मैं आऊंगा ,
इस दुनिया से ऊब गया मन ,
पास तेरे ही रह जाऊंगा ,
मन के वो सारे काम करूँगा ,
जो, जी कर भी न कर पाया ,
तुमसे वो सारी बात कहूँगा ,
जो, अपनों से भी न कह पाया ,
सर्दी की रातों में मिलकर ,
सूरज का अलाव जलाएंगे ,
कम्बल ओढ़े , घेरे उसको ,
गप्पें खूब लड़ाएंगे ,
छोर गगन तक तेज उडेंगे ,
पंछी जैसे पर फैलाये ,
सागर में गहरे जायेंगे ,
मछली जैसी प्यास जगाए ,
और ,
इन सब से जब थक जाऊंगा ,
शाम को ,
अम्बर के बरगद के नीचे ,
बहुत देर तन्हा बैठूँगा ,
बस राह तुम्हारी तकूंगा ,
बस याद तुम्हारी करूँगा ,
अब तो बस ,
उस दिन की खातिर जिन्दा हूँ ,
कि ;
कब छूटूंगा , कब टूटूंगा ||
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6 Sept 2012

बस यूँ ही-८


वो जा रहे हैं ; अब , छींकना भी मुनासिब नहीं ,

मेरे बुजुर्गों का बनाया , ये भी एक दस्तूर है ,

इत्तेफाक से ही सही , कोई अनहोनी जो हो गयी ,

ता-उम्र सबसे बोलेंगे , ये मेरा ही कसूर है
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बस यूँ ही-७


कजरारी अंखियों का काजल गालों तक बह आया है ,

बिंदी मस्तक से खिसक गयी ; या फिर उसने खिसकाया है ,

क्या बोलू कुछ समझ न आये ; अधर शून्य से बैठे हैं

कई बरस के बाद मेरा जब यार नजर फिर आया है ||
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बस यूँ ही-६


मुझे कितनी मुहोब्बत है ;बता पाऊँ तुम्हे कैसे ,

भला मै खवाब इस दिल के दिखा पाऊँ तुम्हे कैसे ,

मेरी आँखों की पलकों में ; तेरी तस्वीर है साजन ,

मैं आँखें बंद करके भी भुला पाऊँ तुम्हे कैसे ||
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2 Sept 2012

मंजिलें और सही

कल ही तो उसने अपना बरसों पुराना सपना पूरा किया था
और आज सुबह जब सो कर उठा तो उसकी आँखों में एक नयी चमक थी , शायद एक नया सपना उसमें से झाँक रहा था -


मंजिलें और सही ,
मुश्किलें और सही ,
राह पर चल जो पड़े ,
थक के रुकना है नहीं ,
रास्ते और सही ,
मंजिलें और सही |
मुश्किलें और सही ||

कदम मजबूत पड़ें ,
भले मजबूर सही ,
कोशिशें अंत तक हों ,
अंत कुछ दूर सही ,
मेरा सफर हो तब तक ,
जब तलक सांस रहे ,
मेरे रुकने से बेहतर ,
सांस रुकना ही सही ,
मंजिलें और सही |
मुश्किलें और सही ||

वक्त थकता है नहीं ,
मैं ही फिर क्यूँ थकूं ,
मुझको जाना है वहीँ ,
घनी उस छाँव तले ,
छिप के दुनिया से जहां ,
वक्त बैठा हो कहीं ,
मंजिलें और सही |
मुश्किलें और सही ||
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1 Sept 2012

बस यूँ ही-५


नहीं तुमसे कोई शिकवा ; नहीं कोई शियाकत है ,

ज़रा सुन लो मेरी धडकन ; मेरी इतनी सी चाहत है ,

चाहे दूर रहना तुम ; मगर हंसतीं यूँ ही रहना ,

भले ही भूल जाना कि मुझे तुमसे मुहोब्बत है ||
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बस यूँ ही-४


दो और दो का योग हमेशा चार नहीं होता ,

सोच-समझ वालों को कुछ नादानी दे मौला ,

फिर मूरत से निकलकर दुनिया में बिखर जा ;

फिर मंदिर को कोई मीरा दीवानी दे मौला ||
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