24 Nov 2013

आओ ढूंढें



खुशी से भरा एक जहाँ आओ ढूंढें ,

उम्मीदों भरा आसमां आओ ढूंढें |


जिसका महल खून से न रंगा हो ,

ऐसे खुदा का निशां आओ ढूंढें |

मुहब्बत हमारी जो खो सी गयी है ,

उसे अपने ही दरमियाँ आओ ढूंढें |

कागज के फूलों को कब तक सजाएं ,

गुलों से सजा गुलिस्तां आओ ढूंढें |

आँखों का पानी इधर ही गिरा था ,

शहर के शरीफों यहाँ आओ ढूंढें ||
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28 Jul 2013

आकर खुद अनुभव कर जाओ


एक चिट्ठी राम के नाम -


मूरत में बसने वाले राम ,

दुनिया में फिर आ जाओ ,

भूखे कैसे सोते हैं ,

आकर खुद अनुभव कर जाओ |



मगर जन्म लेना अबकी तुम ,

किसी गरीब के घर में ,

बचपन कैसे खोते हैं ,

आकर खुद अनुभव कर जाओ |



मंदिर के भीतर तुम अपनी ,

मूरत पाओगे ; संपन्न-सुखी ,

बाहर बच्चे क्यूँ रोते हैं ,

आकर खुद अनुभव कर जाओ |



रहकर दुनिया में देखो ,

तेरे नाम पे कितने क़त्ल हुए ,

लाशों को कैसे ढोते हैं ,

आकर खुद अनुभव कर जाओ |



एक बार ज़रा तुम भी टूटो ,

हालातों की मुट्ठी में ,

हम हिम्मत कैसे खोते हैं ,

आकर खुद अनुभव कर जाओ |



रामराज्य तो कहीं नहीं ,

रावण से बदतर हालत है ,

फिर भी कैसे खुश होते हैं ,

आकर खुद अनुभव कर जाओ |



भले अँधेरे फैले हों ,

पर दिल में रोज सवेरे के

हम सपने कैसे बोते हैं ,

आकर खुद अनुभव कर जाओ |

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22 Jul 2013

नींद

कितने भी आराम के सुख साधन जुटा लीजिए , बचपन की वो बेफिक्र नींद फिर नहीं मिलने वाली | 
वो नींद जो आँखों की कोरों में सोती रहती है , हमारे उठने के बाद भी , 
वो नींद जो तकिये पर अपनी निशानी छोड़ जाती है , वो बेफिक्र नींद फिर नहीं मिलने वाली :( 

 
झुकती सी अँखियाँ ,
जम्हाती बतियाँ ,
नाजुक से गालों पे तकिये की छाप ,
आँखों की कोरों ,
में नींदें सोयीं ,
होठों की कोरों से बहती सी लार |

कुछ देर तक ,
नींद से लड़ना ,
फिर हार कर धम्म से तकिये पे गिरना ,
माँ का बुलाना ,
आवाज देकर ,
झुंझला के तकिये से कानों को ढंकना |

कुछ देर सोना ,
सोने को रोना ,
जल्दी से एक ख्वाब ,
आँखों में बोना ,

फिर से , मैं हर रात , ये मांगता हूँ ,
वो नींद , इक रात , फिर से तो आये ,
सोऊँ मैं , फिर से , बच्चा हूँ जैसे ,
कोई ख्वाब , प्यारा सा , फिर से तो आये ,
मैं रात भर , कितना बेफिक्र सोया ,
फिर गाल पर उसकी निशानी दिखे ,
नींद पलकों पे बैठे , फिर ओस बनकर ,
खोलूं तो औंघाता पानी दिखे ,

दो मिनट देर तक ,
अब भी सोता हूँ पर ,
अब मुझे कोई आकर जगाता नहीं ,
कानों पे तकिया ,
रखता हूँ अब भी ,
प्यार से कोई उसको हटाता नहीं |

फिर बुलाए कोई ,
फिर जगाये कोई ,
मुझको गोदी में फिर से ,
उठाये कोई ,
फिर कोई रात हो ,
मेरी माँ साथ हो ,
फिर मैं बचपन जियूं ,
उससे फिर जिद करूँ –
“दो मिनट तो ठहर ,
माँ ,
मैं उठता हूँ न | ”
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26 Mar 2013

होली


होली, एक ऐसा त्यौहार जिसमें चेहरे पर लगा रंग सारे भेद मिटा देता है | होली के दिन सब हंसी-मजाक माफ होता है (बशर्ते कि वो दायरे से बाहर न हो) | 
काश कि हर दिन ऐसा ही खुशियों से भरा होता -

दोहा-

होली का असली मजा, यारों के संग आये|
और, 
इतना मलो गुलाल कि, रंग भेद मिट जाए|| 

धरती ने किया सिंगार , 
कि होरिया मा रंग बरसे | 
और, 
बरसे प्यार दुलार , 
कि होरिया मा रंग बरसे | 

सखियाँ बैठीं अवध की नगरिया , 
कान्हा के संग है सौतन मुरलिया , 
तभी.. 
आई बिरज से धार , 
कि होरिया मा रंग बरसे | 
सभी.. 
हो गयीं लालम-लाल , 
कि होरिया मा रंग बरसे | 

काहे रे पड़ोसी काहे इतना सरमाये , 
होरी के रंग से काहे खुद को बचाये , 
चल.. 
निकल दुआरे आ , 
कि होरिया मा रंग बरसे | 
हमरी, 
भौजी का सामने ला , 
कि होरिया मा रंग बरसे | 

आज नहीं कउनो छिपना-छिपाना , 
बीवी का रंग सारी को लगाना , 
हमरा.. 
सारी पे आधा अधिकार , 
कि होरिया मा रंग बरसे | 
बीवी.. 
गुस्से से हो गयी लाल , 
कि होरिया मा रंग बरसे | 

हम सब की महफ़िल मा भांग चले , 
हाँ जी, भांग चले , 
अरे, भांग चले, 
और, दद्दू की महफ़िल मा ज्ञान चले , 
भैया ज्ञान चले , 
आजहू , ज्ञान चले , 
आज.. 
ज्ञान को चूल्हे में डाल , 
कि होरिया मा रंग बरसे | 
दिल से.. 
दिल पे मलो गुलाल , 
कि होरिया मा रंग बरसे | 

संग मिल सबका हँसना-हँसाना, 
कउन है अपना , कउन बेगाना , 
रंग.. 
ढँक गया ये आकाश , 
कि होरिया मा रंग बरसे | 
रोज.. 
ऐसी खुशी हो काश , 
कि होरिया मा रंग बरसे | 

बरसे प्यार-दुलार, 
कि होरिया मा रंग बरसे | 
हाँ,, 
धरती ने किया सिंगार , 
कि होरिया मा रंग बरसे |
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सभी को होली की अग्रिम  और असीम शुभकामनायें |

27 Feb 2013

उदास नज्म


कल रात जब जिक्र चला कुछ उदास नज्मों का, तो

तुमने डायरी के कुछ उनींदे पन्ने पलटे,

देर रात सोयी कुछ गजलों को जगाया,

कुछ मिसरों को पढ़ा, 

और एक मोड़ पर जाकर अचानक ठिठक सी गयी,

लिखा था,

“कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता |”

अतीत की शाख से कुछ फूल चुने तो थे हमने,

मगर सब मुरझाए हुए ही क्यूँ,

कुछ नयी कोंपलें भी थीं , कुछ खिले फूल भी थे,

आज सुबह हम खिले हुए फूल चुनेंगे,

आज सुबह हम कुछ खुशनुमा सी बात करेंगे ||
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राष्ट्र हित मे आप भी इस मुहिम से जुड़ें




 सन 1945 मे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की तथाकथित हवाई दुर्घटना या उनके जापानी सरकार के सहयोग से 1945 के बाद सोवियत रूस मे शरण लेने या बाद मे भारत मे उनके होने के बारे मे हमेशा ही सरकार की ओर से गोलमोल जवाब दिया गया है उन से जुड़ी हुई हर जानकारी को "राष्ट्र हित" का हवाला देते हुये हमेशा ही दबाया गया है ... 'मिशन नेताजी' और इस से जुड़े हुये मशहूर पत्रकार श्री अनुज धर ने काफी बार सरकार से अनुरोध किया है कि तथ्यो को सार्वजनिक किया जाये ताकि भारत की जनता भी अपने महान नेता के बारे मे जान सके पर हर बार उन को निराशा ही हाथ आई !

मेरा आप से एक अनुरोध है कि इस मुहिम का हिस्सा जरूर बनें ... भारत के नागरिक के रूप मे अपने देश के इतिहास को जानने का हक़ आपका भी है ... जानिए कैसे और क्यूँ एक महान नेता को चुपचाप गुमनामी के अंधेरे मे चला जाना पड़ा... जानिए कौन कौन था इस साजिश के पीछे ... ऐसे कौन से कारण थे जो इतनी बड़ी साजिश रची गई न केवल नेता जी के खिलाफ बल्कि भारत की जनता के भी खिलाफ ... ऐसे कौन कौन से "राष्ट्र हित" है जिन के कारण हम अपने नेता जी के बारे मे सच नहीं जान पाये आज तक ... जब कि सरकार को सत्य मालूम है ... क्यूँ तथ्यों को सार्वजनिक नहीं किया जाता ... जानिए आखिर क्या है सत्य .... अब जब अदालत ने भी एक समय सीमा देते हुये यह आदेश दिया है कि एक कमेटी द्वारा जल्द से जल्द इस की जांच करवा रिपोर्ट दी जाये तो अब देर किस लिए हो रही है ??? 


आप सब मित्रो से अनुरोध है कि यहाँ नीचे दिये गए लिंक पर जाएँ और इस मुहिम का हिस्सा बने और अपने मित्रो से भी अनुरोध करें कि वो भी इस जन चेतना का हिस्सा बने !
  Set up a multi-disciplinary inquiry to crack Bhagwanji/Netaji mystery



 यहाँ ऊपर दिये गए लिंक मे उल्लेख किए गए पेटीशन का हिन्दी अनुवाद दिया जा रहा है :- 

सेवा में,
अखिलेश यादव, 
माननीय मुख्यमंत्री
उत्तर प्रदेश सरकार 
लखनऊ 
प्रिय अखिलेश यादव जी,

इतिहास के एक महत्वपूर्ण मोड़ पर, आप भारत के सबसे युवा मुख्यमंत्री इस स्थिति में हैं कि देश के सबसे पुराने और सबसे लंबे समय तक चल रहे राजनीतिक विवाद को व्यवस्थित करने की पहल कर सकें| इसलिए देश के युवा अब बहुत आशा से आपकी तरफ देखते हैं कि आप माननीय उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के हाल ही के निर्देश के दृश्य में, नेताजी सुभाष चंद्र बोस के भाग्य की इस बड़ी पहेली को सुलझाने में आगे बढ़ेंगे|
जबकि आज हर भारतीय ने नेताजी के आसपास के विवाद के बारे में सुना है, बहुत कम लोग जानते हैं कि तीन सबसे मौजूदा सिद्धांतों के संभावित हल वास्तव में उत्तर प्रदेश में केंद्रित है| संक्षेप में, नेताजी के साथ जो भी हुआ उसे समझाने के लिए हमारे सामने आज केवल तीन विकल्प हैं: या तो ताइवान में उनकी मृत्यु हो गई, या रूस या फिर फैजाबाद में | 1985 में जब एक रहस्यमय, अनदेखे संत “भगवनजी” के निधन की सूचना मिली, तब उनकी पहचान के बारे में विवाद फैजाबाद में उभर आया था, और जल्द ही पूरे देश भर की सुर्खियों में प्रमुख्यता से बन गया| यह कहा गया कि यह संत वास्तव में सुभाष चंद्र बोस थे। बाद में, जब स्थानीय पत्रकारिता ने जांच कर इस कोण को सही ठहराया, तब नेताजी की भतीजी ललिता बोस ने एक उचित जांच के लिए उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। अदालत ने उस संत के सामान को सुरक्षित रखने का अंतरिम आदेश दिया।

भगवनजी, जो अब गुमनामी बाबा के नाम से बेहतर जाने जाते है, एक पूर्ण वैरागी थे, जो नीमसार, अयोध्या, बस्ती और फैजाबाद में किराए के आवास पर रहते थे। वह दिन के उजाले में कभी एक कदम भी बाहर नहीं रखते थे,और अंदर भी अपने चयनित अनुयायियों के छोड़कर किसी को भी अपना चेहरा नहीं दिखाते थे। प्रारंभिक वर्षों में अधिक बोलते नहीं थे परन्तु उनकी गहरी आवाज और फर्राटेदार अंग्रेजी, बांग्ला और हिंदुस्तानी ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया, जिससे वह बचना चाहते थे। जिन लोगों ने उन्हें देखा उनका कहना है कि भगवनजी बुजुर्ग नेताजी की तरह लगते थे। वह अपने जर्मनी, जापान, लंदन में और यहां तक कि साइबेरियाई कैंप में अपने बिताए समय की बात करते थे जहां वे एक विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु की एक मनगढ़ंत कहानी "के बाद पहुँचे थे"। भगवनजी से मिलने वाले नियमित आगंतुकों में पूर्व क्रांतिकारी, प्रमुख नेता और आईएनए गुप्त सेवा कर्मी भी शामिल थे।
2005 में कलकत्ता उच्च न्यायालय के आदेश पर स्थापित जस्टिस एम.के. मुखर्जी आयोग की जांच की रिपोर्ट में पता चला कि सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु 1945 में ताइवान में नहीं हुई थी। सूचनाओं के मुताबिक वास्तव में उनके लापता होने के समय में वे सोवियत रूस की ओर बढ़ रहे थे।
31 जनवरी, 2013 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने ललिता बोस और उस घर के मालिक जहां भगवनजी फैजाबाद में रुके थे, की संयुक्त याचिका के बाद अपनी सरकार को भगवनजी की पहचान के लिए एक पैनल की नियुक्ति पर विचार करने का निर्देशन दिया।

जैसा कि यह पूरा मुद्दा राजनैतिक है और राज्य की गोपनीयता के दायरे में है, हम नहीं जानते कि गोपनीयता के प्रति जागरूक अधिकारियों द्वारा अदालत के फैसले के जवाब में कार्यवाही करने के लिए किस तरह आपको सूचित किया जाएगा। इस मामले में आपके समक्ष निर्णय किये जाने के लिए निम्नलिखित मोर्चों पर सवाल उठाया जा सकता है:

1. फैजाबाद डीएम कार्यालय में उपलब्ध 1985 पुलिस जांच रिपोर्ट के अनुसार भगवनजी नेताजी प्रतीत नहीं होते।
2. मुखर्जी आयोग की खोज के मुताबिक भगवनजी नेताजी नहीं थे।
3. भगवनजी के दातों का डीएनए नेताजी के परिवार के सदस्यों से प्राप्त डीएनए के साथ मेल नहीं खाता।
वास्तव मे, फैजाबाद एसएसपी पुलिस ने जांच में यह निष्कर्ष निकाला था, कि “जांच के बाद यह नहीं पता चला कि मृतक व्यक्ति कौन थे" जिसका सीधा अर्थ निकलता है कि पुलिस को भगवनजी की पहचान के बारे में कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिला।

हम इस तथ्य पर भी आपका ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं कि न्यायमूर्ति मुखर्जी आयोग की जांच की रिपोर्ट से यह निष्कर्ष निकला है कि "किसी भी ठोस सबूत के अभाव में यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि भगवनजी नेताजी थे"। दूसरे शब्दों में, आयोग ने स्वीकार किया कि नेताजी को भगवनजी से जोड़ने के सबूत थे, लेकिन ठोस नहीं थे।

आयोग को ठोस सबूत न मिलने का कारण यह है कि फैजाबाद से पाए गए भगवनजी के तथाकथित सात दातों का डी एन ए, नेताजी के परिवार के सदस्यों द्वारा उपलब्ध कराए गए रक्त के नमूनों के साथ मैच नहीं करता था। यह परिक्षण केन्द्रीय सरकार प्रयोगशालाओं में किए गए और आयोग की रिपोर्ट में केन्द्र सरकार के बारे मे अच्छा नहीं लिखा गया। बल्कि, यह माना जाता है कि इस मामले में एक फोरेंसिक धोखाधडी हुई थी।
महोदय, आपको एक उदाहरण देना चाहेंगे कि बंगाली अखबार "आनंदबाजार पत्रिका" ने दिसंबर 2003 में एक रिपोर्ट प्रकाशित कि कि भगवनजी ग्रहण दांत पर डीएनए परीक्षण नकारात्मक था। बाद में, "आनंदबाजार पत्रिका", जो शुरू से ताइवान एयर क्रेश थिओरी का पक्षधर रहा है, ने भारतीय प्रेस परिषद के समक्ष स्वीकार किया कि यह खबर एक "स्कूप" के आधार पर की गयी थी। लेकिन समस्या यह है कि दिसंबर 2003 में डीएनए परीक्षण भी ठीक से शुरू नहीं किया गया था। अन्य कारकों को ध्यान में ले कर यह एक आसानी से परिणाम निकलता है कि यह "स्कूप" पूर्वनिर्धारित था।
जाहिर है, भारतीय सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायधीश, एम.के. मुखर्जी ऐसी चालों के बारे में जानते थे और यही कारण है कि 2010 में सरकार के विशेषज्ञों द्वारा आयोजित डी एन ए और लिखावट के परिक्षण के निष्कर्षों की अनदेखी करके,उन्होंने एक बयान दिया था कि उन्हें "शत प्रतिशत यकीन है" कि भगवनजी वास्तव में नेताजी थे।यहाँ यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि सर्वोच्च हस्तलेख विशेषज्ञ श्री बी लाल कपूर ने साबित किया था कि भगवनजी की अंग्रेजी और बंगला लिखावट नेताजी की लिखावट से मेल खाती है।
भगवनजी कहा करते थे की कुछ साल एक साइबेरियाई केंप में बिताने के बाद 1949 में उन्होंने सोवियत रूस छोड़ दिया और उसके बाद गुप्त ऑपरेशनो में लगी हुई विश्व शक्तियों का मुकाबला करने में लगे रहे। उन्हें डर था कि यदि वह खुले में आयेंगे तो विश्व शक्तियां उनके पीछे पड़ जायेंगीं और भारतीय लोगो पर इसके दुष्प्रभाव पड़ेंगे। उन्होंने कहा था कि “मेरा बाहर आना भारत के हित में नहीं है”। उनकी धारणा थी कि भारतीय नेतृत्व के सहापराध के साथ उन्हें युद्ध अपराधी घोषित किया गया था और मित्र शक्तियां उन्हें उनकी 1949 की गतिविधियों के कारण अपना सबसे बड़ा शत्रु समझती थी।
भगवनजी ने यह भी दावा किया था कि जिस दिन 1947 में सत्ता के हस्तांतरण से संबंधित दस्तावेजों को सार्वजनिक किया जाएगा, उस दिन भारतीय जान जायेंगे कि उन्हें गुमनाम/छिपने के लिए क्यों मजबूर होना पड़ा।
खासा दिलचस्प है कि , दिसम्बर 2012 में विदेश और राष्ट्रमंडल कार्यालय, लंदन, ने हम में से एक को बताया कि वह सत्ता हस्तांतरण के विषय में एक फ़ाइल रोके हुए है जो "धारा 27 (1) (क) सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम (अंतरराष्ट्रीय संबंधों) के तहत संवेदनशील बनी हुई है और इसका प्रकाशन संबंधित देशों के साथ हमारे संबंधों में समझौता कर सकता है" ।

महोदय, इस सारे विवरण का उद्देश्य सिर्फ इस मामले की संवेदनशीलता को आपके प्रकाश में लाना है। यह बात वैसी नहीं है जैसी कि पहली नजर में लगती है। इस याचिका के हस्ताक्षरकर्ता चाहते है कि सच्चाई को बाहर आना चाहिए। हमें पता होना चाहिए कि भगवनजी कौन थे। वह नेताजी थे या कोई "ठग" जैसा कि कुछ लोगों ने आरोप लगाया है? क्या वह वास्तव में 1955 में भारत आने से पहले रूस और चीन में थे, या नेताजी को रूस में ही मार दिया गया था जैसा कि बहुत लोगों का कहना है।

माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के न्यायमूर्ति देवी प्रसाद सिंह और न्यायमूर्ति वीरेन्द्र कुमार दीक्षित, भगवनजी के तथ्यों के विषय में एक पूरी तरह से जांच के सुझाव से काफी प्रभावित है। इसलिए हमारा आपसे अनुरोध है कि आप अपने प्रशासन को अदालत के निर्णय का पालन करने हेतू आदेश दें। आपकी सरकार उच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में विशेषज्ञों और उच्च अधिकारियों की एक टीम को मिलाकर एक समिति की नियुक्ति करे जो गुमनामी बाबा उर्फ भगवनजी की पहचान के सम्बन्ध में जांच करे।

यह भी अनुरोध है कि आपकी सरकार द्वारा संस्थापित जांच -

1. बहु - अनुशासनात्मक होनी चाहिए, जिससे इसे देश के किसी भी कोने से किसी भी व्यक्ति को शपथ लेकर सूचना देने को वाध्य करने का अधिकार हो । और यह और किसी भी राज्य या केन्द्रीय सरकार के कार्यालय से सरकारी रिकॉर्ड की मांग कर सके।

2. सेवानिवृत्त पुलिस, आईबी, रॉ और राज्य खुफिया अधिकारी इसके सदस्य हो। सभी सेवारत और सेवानिवृत्त अधिकारियों, विशेष रूप से उन लोगों को, जो खुफिया विभाग से सम्बंधित है,उत्तर प्रदेश सरकार को गोपनीयता की शपथ से छूट दे ताकि वे स्वतंत्र रूप से सर्वोच्च राष्ट्रीय हितों के लिए अपदस्थ हो सकें।

3. इसके सदस्यों में नागरिक समाज के प्रतिनिधि और प्रख्यात पत्रकार हो ताकि पारदर्शिता और निष्पक्षता को सुनिश्चित किया जा सके। ये जांच 6 महीने में खत्म की जानी चाहिए।

4. केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा आयोजित नेताजी और भगवनजी के बारे में सभी गुप्त रिकॉर्ड मंगवाए जाने पर विचार करें। खुफिया एजेंसियों के रिकॉर्ड को भी शामिल करना चाहिए। उत्तर प्रदेश कार्यालयों में खुफिया ब्यूरो के पूर्ण रिकॉर्ड मंगावाये जाने चाहिए और किसी भी परिस्थिति में आईबी स्थानीय कार्यालयों को कागज का एक भी टुकड़ा नष्ट करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।

5.सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि भगवनजी की लिखावट और अन्य फोरेंसिक सामग्री को किसी प्रतिष्ठित अमेरिकन या ब्रिटिश प्रयोगशाला में भेजा जाये.
हमें पूरी उम्मीद है कि आप, मुख्यमंत्री और युवा नेता के तौर पर दुनिया भर में हम नेताजी के प्रसंशकों की इस इच्छा को अवश्य पूरा करेंगे |

सादर
आपका भवदीय
अनुज धर
लेखक "India's biggest cover-up"

चन्द्रचूर घोष
प्रमुख - www.subhaschandrabose.org और नेताजी के ऊपर आने वाली एक पुस्तक के लेखक

15 Feb 2013

बसन्त चाचा

कंक्रीट की दीवारों पर कभी बसन्त नहीं आता, ज़रा सोचियेगा :( -


पूरे घर को इंतज़ार है बसन्त चाचा का,
वो हर साल इन्हीं दिनों मिलने आते हैं,
एक पीली सी शर्ट , भीनी खुशबू में लिपटी,
चिरयुवा चेहरा , खुशियाँ बांटती आवाज
यही पहचान है उनकी| 


उनके आते ही घर का मौसम बदल जाता था,
हम बच्चे पक्षियों की तरह उनके इर्द-गिर्द लिपटते थे,
कोई कंधे पर तो कोई गोदी पर| 


आज सुबह एक बुजुर्ग ने दरवाजे पर दस्तक दी,
बदरंग कपड़े, रुंधा हुआ गला, बासी सी शक्ल
जो कुछ-कुछ बसन्त चाचा से मिलती थी,
ये क्या हाल हुआ उनका, कैसे हुआ, किसने किया? 


शायद मैंने,
मैंने ही तरक्की की दौड में उनका घर जला दिया था कभी,
उनके कुछ पालतू मार डाले थे शायद,
जाने-अन्जाने उनको चोट देता गया, और
उनको इस हाल पर पहुंचा डाला मैंने,
न जाने अब कितने दिन और जी सकेंगे वो|
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खैर आप सभी को बसन्त पञ्चमी की हार्दिक शुभकामनायें , माँ सरस्वती का आशीर्वाद हमेशा आपके साथ रहे| बस एक बार इस विषय पर सोचियेगा जरूर :)

11 Feb 2013

फासला


क्या फरक कि मैं चला या तू चला है , 
बात है कि फासला कुछ कम हुआ है | 


एक अरसे से नहीं रूठी है मुझसे ,
मुझको किस्मत से फ़कत इतना गिला है |

टूटने वाला हूँ मैं कुछ देर में , 
ये मेरी अपनी अकड़ का ही सिला है | 

तू भी इक दिन फेर लेगा मुंह यकीनन , 
खून में तेरे वही पानी मिला है | 

आईने से मुंह चुराते हो भला क्यूँ , 
एक तेरा ही तो मुंह दूधों धुला है | 

आज नाजायज है अपने ही शहर में , 
वो गुनाह जो सबकी गोदी में पला है | 

दफ्न कर डाले हैं सबने फ़र्ज अपने , 
दौर ये अंगुली उठाने का चला है | 

एक दिन बदलेगी ये तस्वीर, लेकिन 
बोलने से क्या कभी पर्वत हिला है ?
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25 Jan 2013

पतंग


पतंगों का मौसम है | कल गणतंत्र दिवस भी है | एक ख्वाहिश है, जो शायद बहुत सारे दिलों में होगी -

मुहब्बत के मांझे से कसकर बंधी हो,
ऐसी पतंग हम उड़ायें |
जिसमें अमन की बातें लिखीं हों,
ऐसी पतंग हम उड़ायें |
पतंगें क्या जानें कि सरहद कहाँ है,
किस ओर उड़ना, जाना कहाँ है?
इस ओर उड़ती है, कटती कहीं हैं,
कटकर न जाने, गिरती कहीं हैं,
जिस छत पे पहुंचीं, उसका क्या मज़हब,
मज़हब से आखिर, उनको क्या मतलब,
वो तो मुहब्बत का पैगाम लायीं,
होठों पे बच्चों के मुस्कान लायीं,
और कुछ उम्मीदों को खुशबू बनाकर,
उसमें था मैंने रखा छिपाकर,
जब सांस लोगे महसूस होगी,
उम्मीद तुझमें भी महफूज होगी,
तुमको भी आयेंगे सपने सुहाने,
जब न रहेंगे हम तुम बेगाने,
तेरी भी छत पर, मेरी भी छत पर,
फिर उस सुबह एक सूरज खिलेगा,
मुस्लिम मिलेगा मंदिर सजाते,
हिंदू अज़ानों को पढता दिखेगा,
गुपचुप सी कानों में बातें भी होंगीं,
ओस में लिपटी रातें भी होंगीं,
कोहरे छटेंगे आँखों से अपने,
उजले से होंगे मुहोब्बत के सपने,
जिस रोज नफरत की अर्थी उठेगी,
उस रोज धरती ये फिर से सजेगी,
होली की गुझियाँ बनेगीं तेरे घर,
ईद की सेंवई पकेगी मेरे घर,
फिर एक होंगे दोनों के झूले,
संग मिल के हम तुम अम्बर को छू लें,
जिसमें न कोई होगा पराया,
हर दिल में बेहतर इंसाँ समाया,
ऐसा जहाँ हम बनायें,
ऐसा जहाँ हम बनायें |

मुहब्बत के मांझे से कसकर बंधी हो,
ऐसी पतंग हम उड़ायें |
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13 Jan 2013

द्रौपदी - आज का भारत

द्रौपदी की ये कहानी बहुत बार पहले भी सुनी जा चुकी है , मैं फिर से सुना रहा हूँ | 
अब ज़रा इसे वर्तमान परिदृश्य में देखते हैं -
  • ध्रतराष्ट्र अर्थात दिल्ली में बैठा मूक राजा जिसे कुछ भी दिखाई नहीं देता, जो कोई भी कड़ा फैसला तो छोडिये, कोई सामान्य फैसला भी अपनी मर्जी से नहीं ले सकता |
  • पाण्डव अर्थात वे व्यक्ति जिन पर द्रौपदी की रक्षा की जिम्मेदारी है लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए उन्होंने ही उसे दांव पर लगा दिया |
  • सभा में मौजूद अन्य सदस्य अर्थात तमाशबीन जनता, जिसकी पसंदीदा पंक्ति है - "मुझे क्या ? ये मेरे घर का मसला नहीं है |", जो कि द्रौपदी की दुर्दशा में उतनी ही जिम्मेदार है जितना कि अन्य कोई |
  • और द्रौपदी अर्थात समस्त पीड़िता स्त्रीलिंग, चाहे वो दिल्ली की बस में चढ़ी 'ज्योति' हो या आये-दिन घाव खाने वाली और अभी हाल ही में अपने दो बेटों की नृशंस हत्या से घायल 'भारत माँ' हो |

किस काम के हो शासक, किस बात की है सत्ता,
जब फैसला कोई भी, खुद से नहीं सुनाया,
इस घर की आबरू पर, जिनकी बुरी नजर है,
उनको ही पुत्र कहकर, अपने गले लगाया,
धिक्कार है धृत-राष्ट्र को, धिक्कार धृत-राजा को है,
द्रौपदी की दुर्दशा के तुम भी भागीदार हो |

हे धर्म के धुरंधर, किस धर्म में लिखा है,
नारी को वस्तु समझो और दांव पर लगाओ,
यदि धर्म नहीं है ये, विरोध करो इसका,
यदि धर्म यही है फिर, आँखें तो न झुकाओ,
धिक्कार है उस धर्म को, धिक्कार धर्मराज को,
द्रौपदी की दुर्दशा के तुम भी भागीदार हो | 

पांच भाइयों में, एक वस्तु सी बंटी मैं 
वो न्याय था तुम्हारा, हे पार्थ प्राण प्यारे ?
जब ढाल सत्य की ही, ये तीर न बने तो,
बेकार ये धनुष है, बेकार बाण सारे,
धिक्कार उस धनुष को, धिक्कार धनुर्धर को,
द्रौपदी की दुर्दशा के तुम भी भागीदार हो | 

जिसने तिनके की तरह, शत्रुओं को चीर डाला 
भीम का शतहस्तसम् वो बल कहाँ पर खो गया है,
या मैं समझूं, झूठ था सब जो कभी सुनते थे हम
या मैं समझूं, अब तुम्हारा रक्त ठंडा हो गया है,
धिक्कार है उस बाहुबल को, धिक्कार उस बली को है
द्रौपदी की दुर्दशा के तुम भी भागीदार हो | 

हे नकुल सहदेव जैसे, इस सभा के दर्शकों,
वीर कहते हो, स्वयं को तुम सभी, धिक्कार है ,
एक मालिक की तरह निज स्वार्थसिद्धि के लिए
दांव पर मुझको लगाने का नहीं अधिकार है | 

किस सोच में हो तुम सभी, क्यूँ भला खामोश हो,
क्या द्रौपदी की लाज रखने, कृष्ण ही अब आयेंगे,
क्या कौरवों के दंभ को, बस वही हैं चीर सकते,
क्या द्रौपदी को चीर केवल, कृष्ण ही दे पाएंगे ? 

एक दुशासन हँस रहा है, तुम सभी की आत्मा में,
कृष्ण कोने में कहीं सहमा हुआ, बिखरा हुआ है,
उस दुशासन को मिटाओ,
कृष्ण को वापस बुलाओ,
वो ही शास्वत कृष्ण है, जो आत्मा में घुल चुका है,
आत्मा को फिर जगाओ,
कृष्ण को वापस बुलाओ,
द्रौपदी का चीर अपने अंत के नजदीक ही है,
कृष्ण खुद को ही बनाओ,
द्रौपदी को तुम बचाओ |
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