31 Oct 2012

प्रियतम का प्यार - हास्य कविता ?

कहा जाता है , खुद अपना ही मजाक उड़वाते समय एक जोकर अपना चेहरा सिर्फ इसलिए रंग लेता है ताकि उसके चेहरे पर छिपे दर्द कोई देख न ले | ज़रा कल्पना कीजिए , कैसी होगी उसकी जिंदगी जो खुद अपने ही मरने की दुआएं मांग रहा है | शायद नर्क से भी बदतर |
हमारे समाज में स्त्री को हमेशा सिखाया जाता है कि पति ही उसका परमेश्वर है | उसे हर हाल में अपने भगवान की आज्ञा माननी है , उसकी सेवा करनी है | हमारी कविता की नायिका भी उसी 'अधूरी शिक्षा' की शिकार है | मुक्ति पाकर वो बहुत खुश है | अपने पति को ईश्वर मानते हुए और इस पूरी सोच और समाज पर दर्द भरा 'कटाक्ष' करती हुई वो अपनी कहानी सुनाती है -



सारी रात प्रियतम हमरे ,
दिल लगाकर पीटे हमको ,
फर्श पोंछने का दिल होगा ,
चोटी पकड़ घसीटे हमको ,
गला दबाया प्यार से इतने ,
अँखियाँ जइसे लटक गयीं हो ,
गाली इतनी मीठी बांचे ,
शक्कर सुनकर झटक गयी हो ,
पिस्तौल दिखा रिकवेस्ट किये ,
हम और किसी को न बतलायें ,
हम ; मन में ये फरियाद किये ,
ये प्यार वो फिर से न दिखलायें | |

वो तो अपनी सारी चाहत ,
सिर्फ हमीं पर बरसाते थे ,
चाय से ले कर खाने तक की ,
तारीफें ; मुक्कों से कर जाते थे ,
रोज रात को शयन कक्ष में ,
सुरपान नियम से करते थे ,
फिर देवतुल्य अपनी शक्ति का ,
हमें प्रदर्शन करते थे ,
कसम से इतने वीर थे वो कि ,
हम तुमको क्या-क्या बतलायें ,
बस मन में ये फरियाद किये ,
ये प्यार वो फिर से न दिखलायें | |

हम ही ससुरी पगली थीं ,
जो प्यार से उनके ऊब गयी थीं ,
उनके कोमल झापड़ की ,
उन झंकारों में डूब गयीं थीं ,
एक रोज हम दीवानी ने भी ,
अपना स्नेह ; उन पर लुटा दिया ,
उनके प्यारे मुक्के के बदले ,
उनको भी झापड़ जमा दिया ,

अब इतना सज्जन मानव आखिर ,
ये कैसे स्वीकार करे ,
उसके निस्वार्थ प्यार के बदले ,
पत्नी भी उसको प्यार करे ,
बस ठान लिया उसने मन में ,
हमको सर्वोच्च प्रेम-सुख देगा ,
हम मृत्यु-लोक(पृथ्वी) में भटक रही थीं ,

हमको परम मोक्ष वो देगा ,

गंगाजल का लिया कनस्तर ,
फिर हम पर बौछार कराई ,
गंगा इतनी मलिन थीं हमको ,

केरोसीन की खुशबू आई ,
फिर अंततयः उस पाक ह्रदय ने ,
शुद्ध अग्नि में हमें तपाया ,
हमरी अशुद्ध देह जलाकर ,
सोने जैसा खरा बनाया ,


अब भी जाने कितने दानव ,
पति-परमेश्वर कहलाते हैं ,
हम भी शक्ति-स्वरूपा हैं ,
ये जाने क्यूँ भुल जाते हैं ,
पति भी तो अर्द्धांग है अपना ,
फिर , उसको क्यूँ ईश्वर कहते हैं ,
वो अपना पालनहार नहीं है ,
फिर , चुप रहकर क्यूँ सब सहते हैं ,
वो सुबह न जाने कब होगी ,
जब नारी स्वतंत्र हो पाएगी ,
भेद मिटेगा पति-पत्नी का ,
और प्यार से न घबराएगी |
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16 Oct 2012

नवरात्रि - माँ का स्वागत



“बात की आपने ?”

“अभी नहीं , करता हूँ |”

कल से नवरात्रि शुरू हो रहीं थीं | अब दशहरा तक घर में मेले जैसा माहौल रहने वाला था | सभी यार-दोस्तों और जान-पहचान वालों को भी निमंत्रण भिजवा दिया गया | बाहर भी तरह-तरह के पंडाल सज चुके थे | पूरा माहौल ही माँ के रंग में रंगा था | वो दोनों भी जगतजननी अम्बे माँ के बहुत बड़े भक्त थे | पूरा घर बहुत ही सुन्दर तरीके से सजाया गया था | बस एक आखिरी काम बचा था –

“बात की आपने ?”, उसने पूजा की तैयारियों में लगे अपने पति से पूछा |

“अभी नहीं , करता हूँ |”, वो बोला और अपनी जगह से उठकर बाहर बैठक में जाने लगा |

बैठक में सोफे पर एक बुढिया बैठी थी | पुरानी सी सफ़ेद धोती , जिसका पल्लू पीछे से घूमकर सर पर पड़ा हुआ था , चेहरे पर झुर्रियाँ , पूरा शरीर काँपकर अंजाने में ही उसकी उम्र का अंदाजा लगवा रहा था | पास की ही एक अलमारी में एक पुराना , आधा फटा हुआ राज-रतन का झोला रखा हुआ था | उसी के बगल में एक तस्वीर रखी थी , शायद उस बुढिया के जवानी के दिनों की रही होगी | साथ में एक आदमी भी था , शायद उसका पति होगा |

“माँ ?”, वो आदमी उस बुढिया को संबोधित करते हुए बोला |

कोई जवाब नहीं |

“माँ ?”, इस बार कुछ तेज आवाज में , थोडा झुककर |

“हाँ लल्ला ?”, बुढिया ने आँखों में चमक भर के पूछा |

“माँ एक बात है ?”

“का ?”

“तुम बुरा तो नहीं मानोगी ?”

इतना सुनते ही उसकी आँखों की चमक तेजी से कम हो गयी , वापस हिम्मत करके उसने जवाब दिया –

“तुम्हरा काहे का बुरा मनिबे लल्ला |”

लेकिन उस बुजुर्ग दिल में अभी भी एक डर था कि पता नहीं कौन सी बात होगी |

“माँ , तुम नौ दिन किचन के साथ वाले स्टोर रूम में रह जाओ न , असल में बहुत लोग घर में आयेंगे-जायेंगे , तुम्ही को तकलीफ होगी | वहाँ एकांत रहेगा | आराम से मैया की पूजा करना |”

उसने एक पल के लिए स्थिर निगाह से अपने लड़के की तरफ देखा , फिर उसकी नजर वापस उसी अलमारी पर गयी | वहाँ एक और तस्वीर भी रखी थी , उस तस्वीर में वही बुढिया और वही आदमी थे बस साथ में एक बच्चा और था जिसे उस औरत ने गोद में उठा रखा था | बैकग्राउंड में कानपुर का प्रसिद्द तपेश्वरी मंदिर दिख रहा था | वो लोग हर नवरात्रि वहाँ माँ के दर्शन करने और मेला घूमने जाते थे |

उसके होठों पर एक उदासी भरी मुस्कान फ़ैली , उसने अपना झोला उठाया और स्टोर की तरफ चल दी |

“माँ ये तस्वीरें भी लेती जाओ |”, उसके लड़के ने वो सारी पुरानी तस्वीरों को उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा |

वो अपना सारा सामान लेकर स्टोर रूम में पहुँच चुकी थी , उसके लड़के ने अपने घर को बाहर से भीतर तक एक नजर देखा और बोला “नवरात्रि की सजावट तो हो गयी अब बस माँ के स्वागत की तैयारियां करनी हैं |”
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13 Oct 2012

बचपन

शायद ही कोई ऐसा होगा जिसे अपना बचपन वापस नहीं चाहिए -

अगर मांग पाता खुदा से मैं कुछ भी ,

तो फिर से वो बचपन के पल मांग लाता |

वो फिर से मैं करता कोई मीठी गलती ,

वो कोई मुझे ; प्यार से फिर बताता |

वो जिद फिर से करता खिलौनों की खातिर ,

वो फिर से मचलता ; झूलों की खातिर |

वो ललचायी नजरें दुकानों पे रखता ,

वो आँखों से टॉफी के हर स्वाद चखता |

वो बचपन के साथी फिर से मैं पाता ,

वो तुतली जुबाँ में साथ उनके मैं गाता |

वो मालूम न होते जो दुनिया के बंधन ,

वो गर पाक हो पाते इक बार ये मन |

मैं फिर से ये गुम-सुम जवानी न पाता ,

अगर मांग पाता खुदा से मैं कुछ भी ,

तो फिर से वो बचपन के पल मांग लाता ||
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9 Oct 2012

हम कोने वाले कमरा के हैं

भारत माँ ने कुछ जमीन खरीदकर एक घर बनाया , जिसमें बिहार , उत्तर प्रदेश , महाराष्ट्र जैसे कई छोटे-बड़े कमरे बने |
क्या एक घर में रहने वाले लोगों को हम उनके कमरों से जानते हैं ?
क्या एक घर में रहने वाले लोग एक-दूसरे के कमरों में नहीं जाते ?
क्यूँ हमारे देश में यू.पी.-बिहारी जैसे जुमले चलते हैं ?

या फिर क्यूँ पूर्वी भारत के लोगों को अपने देश में ही परायों की तरह रखा जाता है ?


बचपन से ही हमको ,
एकांत पसंद आता था ,
वो कमरा ,
एकदम कोने में था ,
न शोर , न शराबा ,
हम बचपन से ही वहीँ रहे |
अब हमरा कोई नाम नहीं ,
बस इक ही ठो पहिचान है ,
अपने घर मा रह के भी ,
हम कोने वाले कमरा के हैं |

हमरे संग वाले कहते थे ,
हमको कोई गिला नहीं था ,
सब घर वाले भी कहते थे ,
ज्यादा फिर भी गिला नहीं था ,
अब उन सब के बच्चे आये हैं ,
वो का जानें हम हैं कौन ,
सब उनका ये ही सिखलाये ,
हम कोने वाले कमरा के हैं |

हमरे सब भाई-भौजाई ,
खूब कमाए दुनियादारी ,
हम कोने मा पड़े रहे ,
नहीं सीखे तनिको हुसियारी ,
अब हम गंवार , उनकी नजरों में ,
नहीं पढ़े हैं , नहीं लिखे हैं ,
नहीं कोई मैनर-वैनर है ,
बात भी करना नहीं सिखे हैं ,
हम तो अपने घर में रहकर भी ,
कोने वाले कमरा के हैं |

पूरा घर सब पुतवाये हैं ,
बढ़िया वाला कलर करा के ,
हम अपना कमरा पुतवाये ,
चूना और खड़िया घुरवा के ,
हम भी मेहनत बहुत किये थे ,
पूरा घर पुतवाने में ,
उनका हम इक दाग लगे ,
उनके राजघराने में ,
हम , बाहर आते हैं तो उनका ,
मुँह गुब्बारा बन जाता है ,
इक ही माँ के बेटे हैं ,
ये सब उनको भुल जाता है ,
क्या करें , अपने घर में रह के भी ,
हम कोने वाले कमरा के हैं |

बस इक हमरी अम्मा हैं ,
हम जिनके खातिर रुके हुए हैं ,
हम जायेंगे , वो मर जाएँगी |
अपनों से उपहार में पाए ,
जख्म बहुत से ढंके हुए हैं ,
दिखलायेंगे , वो डर जाएँगी |
जख्म दिखाते नहीं किसी को ,
बस हँसते ही रहते हैं ,
उससे भी तकलीफ है उनका ,
हमको पागल कहते हैं ,
एही कारन चुपचाप , अकेले ,
अपने कमरा मा बंद रहे ,
ई पर सब फिर से बोले
हम कोने वाले कमरा के हैं |

अपने घर मा रहकर भी ,
हम आजहू सबसे अलग-थलग हैं ,
काहे कि सब ये ही कहते हैं
हम कोने वाले कमरा के हैं |
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4 Oct 2012

सपनों का सौदागर


साब ! एक रुपिया देओ ना साब , कल से कुछौ नई खावा ...,
      रावतपुर क्रोसिंग , शायद कानपुर शहर की व्यस्ततम क्रोसिंग या उनमें से एक | जब भी किसी रेल को गुजारने के लिए इसके फाटक बंद होते हैं , उस के दोनों तरफ चंद सेकेंडों में ही सैकड़ों मुसाफिरों का हुजूम जमा हो जाता है और उन में से हर एक को इतनी जल्दी होती है मानो अगले १० मिनट में उनकी प्रधानमंत्री के साथ मीटिंग हो | फाटक पर रुकना तो महज एक मजबूरी है | यकीन ना हो तो एक बार फाटक खोल कर देखिये , फिर रेल क्या रेल मंत्रालय वाले भी इन्हें नहीं रोक पाएंगे |
      इसी मजबूरी में आज मैं भी फंस गया | रोज तो बाइक तिरछी कर के निकल लेता था लेकिन आज तो फाटक तक ही नहीं पहुँच पाया | फाटक के किनारे फंसा हुआ बेचारा मजबूर आदमी कर भी क्या सकता है ! वो तो बस नजर घुमाकर आंखों की कसरत कर सकता है या भगवान से रेल के जल्दी आने की प्रार्थना कर सकता है ( जबकि उसे मालूम है कि भगवान कोई रेल का ड्राईवर नहीं है ) , वही मैं भी कर रहा था .| मेरा बस चले तो मैं उन चंद सेकेंडों के लिए ट्रेन में हवाई जहाज का इंजन लगा दूं , उफ़, कितनी धीमे चलाते हैं ये लोग |
      लेकिन इसी भीड़ में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो भगवान से हर सेकेंड यही प्रार्थना करते हैं कि हे भोलेनाथ ! ये फाटक जितनी देर मुमकिन हो , अभी और बंद रहे (हालाँकि ये लोग भी जानते हैं कि भोलेनाथ फाटक खोलने और बंद करने नहीं आते )| ये कुछ लोग उस फाटक पर अपना धंधा चलाने वाले या इज्जत से कहें तो बिजनेस करने वाले भिखारी होते हैं | बंद फाटक इन के लिए किसी त्यौहारी बम्पर धमाका से कम नहीं | तभी तो ये चाहते हैं कि फाटक यूँ ही बंद रहे और इन का बिजनेस शेयर मार्केट को भी हिला दे |
        इस वक्त भी एक ५-६ साल का छोटा बच्चा हाथ में कटोरा लिए और उस में एक तेल चुपड़ी हुई लोहे कि पत्ती डाले हुए , जिसे वो शनि देव बता रहा था, एक आदमी की जेब हल्की कराने पर लगा हुआ था, एक लगभग उसी कि उम्र की लड़की टैम्पो से वसूली कर रही थी और एक अधेड़ नशे कि हालत में किसी साल भर के बच्चे को अपनी गोद में दबाये रेल की पटरी से कुछ दूरी पर बैठा था और शायद अपने आप से ही कुछ बड़बड़ा रहा था | मैं दावा तो नहीं कर सकता लेकिन संभवतः वो अधेड़ और उस की गोद में बैठा वो बच्चा शायद दोनों बाप-बेटे रहे होंगे|
        लेकिन असली मुसीबत तो मेरे सामने खड़ी थी .| एक करीब १०-११ साल का लड़का अपनी दायीं टांग को हवा में उठाये , बैसाखी का सहारा लिए ठीक मेरे बगल वाले सज्जन के पास खड़ा था – “साब ! एक रुपिया देओ ना साब , कल से कुछौ नई खावा ...” उस लड़के ने इस छोटी सी उम्र में कमाए हुए अपने तमाम अनुभव को इस एक वाक्य में झोंक दिया | दयनीयता उस के चेहरे से साफ़ टपक रही थी | धूप में रहते हुए उस का रंग सुर्ख काला हो चुका था | उस की दायीं टांग पर , जो संभवतः टूटी थी और जिस को वो हवा में उठाये था, घुटने के नीचे एक बड़ा सा घाव था जिसमें मवाद/पस भरा हुआ था और मक्खियों के एक झुण्ड ने उसी के ऊपर अपना बसेरा बना लिया था |
          सामने वाले से कोई जवाब ना पाते हुए उसने एक बार फिर याचना करना उचित समझा- “साब देओ ना साब , भगवान करे तुम जल्दी साईकिल की जगह मोटरसाईकिल पे घूमौ |” , सच कहा जाता है कि बिजनेस में हर बार कुछ अलग , कुछ क्रिएटिव करते रहना चाहिए | लड़के ने तो जैसे उस आदमी की दुःखती रग पे हाथ रख दिया हो | झट उसका हाथ जेब की तरफ लपका और जेब से एक सिक्का लेकर निकला , पता नहीं कितने का लेकिन वो सिक्का लड़के को थमाते हुए उसकी आँखों की चमक साफ़ देखी जा सकती थी, मानो एक सिक्के के बदले में उसने मोटरसाईकिल खरीद ली हो |
         लेकिन ये मेरे लिए साफ़ संकेत था कि बेटा अगला हमला तेरी जेब पर ही होने वाला है | हालाँकि १ रु. देने में गरीबी ना आ जाती लेकिन फिर भी मुझे भीख देना कतई पसंद नहीं क्योंकि मुझे लगता है कि इंसान को मेहनत कर के पेट पालना चाहिए | लेकिन शायद मुझे इनके बिजनेस में लगने वाली मेहनत का अंदाजा नहीं था |
         “एक रुपिया देओ ना साब , कल से कुछौ नई खावा ...”, वही पुरानी लाइन |
         मैंने फैसला कर लिया था कि इस को एक पैसा भी नहीं दूँगा | उस को अनदेखा करने के लिए मैंने अपने कंधे पर टंगे कोचिंग बैग को सही करना शुरू कर दिया |
         लेकिन महज ११ साल कि उम्र में उस बच्चे ने शायद काफी अनुभव हासिल कर लिया था | पास में ही कोचिंग मंडी का होना मेरे कंधे पर टंगे उस कोचिंग बैग का होना , शायद इतना संकेत उस के लिए काफी था | तुरंत उसने अपना अगला पासा फेंका - “साब भगवान करे तुम्हरा आई.टी.आई. में हुई जाये |”, लेकिन यही पर वो मात खा गया | किसी आई.आई.टी. की तैयारी करने वाले बंदे को कभी ये दुआ देकर देखिये , जो उस वक्त मुझे उसने दी थी, फिर देखिये कैसे उसके तन-बदन में आग लग जाती है |
         “अबे ए ! क्या फिजूल बक रहे हो बे | पता नहीं है लेकिन बके जा रहे हो | बेटा ! ये भीख-वीख मांगना छोडकर पढाई-लिखाई क्यों नहीं करते ?”, मैंने 'आई.टी.आई.' का सारा गुस्सा उस पर निकलते हुए बेहद तिरस्कारपूर्ण लहजे में उस से सवाल किया |
                    “साब कोई के ३ दिन तक कुछौ खावे के न देओ , फिर ३ दिन बाद उह्के आगे ४ रोटी और १ किताब रखि के देखो , अपये-आप पता लगि जाई , का जादा जरूरी | , इस से पहले कि मैं उसे कोई और भाषण दे पाता , उस छोटे से बच्चे के उस सटीक जवाब ने मुझे निरुत्तर कर दिया |
          कुछ पल तक तो मैं उसे यूँ ही खड़ा देखता रहा | मेरे हाथों ने खुद-ब-खुद मेरी जेब में से एक सिक्का निकालकर उसे दे दे दिया |
          “बहुत जल्दी आई.टी.आई. में पास हुई जैहो ”, बोलता हुआ वो आगे बढ़ गया | लेकिन इस बार उसके 'आई.टी.आई.' से मुझे गुस्सा नहीं आया , बल्कि मैं तो अब भी उसकी बात का जवाब तलाशने कि कोशिश कर रहा था |
          क्यों उसने मुझसे ३ दिन भूखे रहने कि बात कि थी | आखिर वो भी तो भीख किसी ना किसी मजबूरी में ही मांगता होगा | आदमी दिन भर में जितने का गुटखा खा के थूक देता है, उतना पैसा अगर इन गरीबों को दे देगा तो इनकी कितनी मदद हो जायेगी | बच्चों को तो देश का भविष्य कहते हैं लेकिन आज मैंने देश के उसी भविष्य को हाथ में कटोरा पकडे देखा |
          “साब ! एक रुपिया देओ ना साब , कल से कुछौ नई खावा ...”, एक बार फिर वही आवाज मेरे कानो में पड़ी | अपनी बैसाखी को खडखडाता हुआ वो अब मेरे बगल वाली मोटरसाइकिल के पास पहुँच चुका था | उसका अगला निशाना थे एक २०-२२ साल का लड़का और उसके पीछे बैठी लगभग उसी के उम्र की एक लड़की |
          “नहीं है , चल आगे बढ़ |”, मोटरसाइकिल पर सवार उस लड़के ने बेरुखी से जवाब दिया|
          लेकिन वो बिजनेसमैन ही क्या जो अपने क्लाइंट को इतनी आसानी से जाने दे |
                     “मेमसाब ! देओ ना | भगवान करे तुम दुइनो की जोड़ी हमेसा बनी रहे |, इस बार उस ने लड़की को निशाना बनाना ठीक समझा |
           एक बार फिर उसका तीर सटीक निशाने पर लगा | कोई लड़का ये कैसे बर्दाश्त कर सकता है कि जिस भिखारी को उस ने भगा दिया , उसकी गर्लफ्रैंड उसे पैसे दे दे | अजीब सा मुंह बनाते हुए , उसे एक सिक्का पकडाते हुए बोला ,”चल ले , अब भाग यहाँ से |”
           उस भिखारी ने मुझे आज एक चीज तो सिखा दी थी कि वो भीख नहीं मांगता , वो तो उस क्रोसिंग पर अपना व्यापार करता है | वो लोगो को १ रुपये में सपने बेचता है ; साईकिल वाले आदमी को मोटरसाइकिल का सपना , कोचिंग वाले को “आई.टी.आई.” का सपना और लड़की वाले को मजबूत रिश्ते का सपना | लेकिन अफ़सोस सपने बेचने वाले उस व्यापारी की आँखों में खुद के लिए शायद कोई सपना नहीं है |
           मैं अपने ख्यालों कि दुनिया में बस खो ही पाया था कि लोगों कि चीख ने मुझे वापस खींच लिया | मेरे आस-पास के ज्यादातर लोग रेलवे ट्रैक की तरफ इशारा कर रहे थे और बचाओ-बचाओ चिल्ला रहे थे | डर उनके चेहरों से साफ़ पढ़ा जा सकता था | पटरियों पर रेल बिना रुके आगे बढ़ी चली आ रही थी | लेकिन तभी मेरी नजर उन्ही पटरियों के बीच में बैठे उस बच्चे पर पड़ी जो अभी कुछ देर पहले नशे में धुत उस अधेड़ कि गोद में बैठा खेल रहा था| उस बच्चे को तो शायद इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं होगा कि मौत कुछ ही मीटर की दूरी से उसकी तरफ दौड़ती चली आ रही थी | चाहे मेरे एक तरफ खड़े साईकिल वाले भाईसाब हों या दूसरी तरफ खड़ा प्रेमी जोड़ा या फिर फाटक के दोनों तरफ खड़े बाकी के लोग , सभी एक-दूसरे की तरफ देखकर बचाओ-बचाओ चिल्लाने के आलावा और कुछ करने का साहस नहीं जुटा पा रहे थे | उन्ही में से एक मैं और एक वो ११ साल का लंगड़ा भिखारी बच्चा भी था |
           लेकिन अचानक मेरी आंख खुली की खुली रह गयी | वो लंगड़ा भिखारी अपनी जगह पर नहीं था | वहाँ थी तो सिर्फ उसकी लकड़ी की बैसाखी , जो जमीन पर पड़ी थी और वो लड़का जो कुछ समय पहले अपनी एक टांग को हवा में उठाकर लोगों की सहानुभूति बटोरने की कोशिश कर रहा था , वही अब पूरी तेजी के साथ लोगो की भीड़ को चीरता हुआ  रेल की उन पटरियों की तरफ दौड़ा जा रहा था | लेकिन शायद इतना काफी नहीं था | उस क्रोसिंग के इंचार्ज ने अगर रेल को रुकने का संकेत दिया भी होता तो भी अब रेल का बच्चे की जान लिए बिना रुकना लगभग असंभव ही था|
           रेल लगभग क्रोसिंग पर आ चुकी थी | उसके होर्न की आवाज के नीचे सभी के बचाओ की गुहार एकदम दब सी गयी थी | नशे की हालत में बैठा वो आदमी अब भी खुद में ही कुछ बडबडा रहा था | रेल कि पटरियों के बीच बैठा वो मासूम अपनी ही आगामी मौत से अजान अब भी बेफिक्र बैठा था और उस मासूम कि आखिरी उम्मीद वो लंगड़ा भिखारी जिसकी टांग अभी कोई १० सेकेंड पहले ही ठीक हुई थी , बिना किसी खौफ के पूरी ताकत से दौड़ता हुआ फाटक तक पहुँच चुका था | लोग और तेज चिल्लाने लगे थे लेकिन उनके चेहरे से एक मासूम कि अकारण होने वाली मौत का भय साफ देखा जा सकता था, या फिर शायद दो की |
           लोगों का सारा ध्यान ११ साल के उस लंगड़े भिखारी की तरफ था, जो एक बच्चे को बचाने के लिए खौफ कि सारी सीमाओं को लांघकर ठीक मौत की तरफ ही दौड रहा था | उसने झटके से दौडकर फाटक पार किया | पटरियों पर बैठा वो नन्हा बच्चा उस से केवल ३ कदम की दूरी पर होगा और ट्रेन भी उस से महज चंद मीटर की दूरी पर ही थी| दोनों एक-दूसरे की तेजी की परीक्षा लेने को तैयार थे |
           अचानक सारी आवाजें शांत सी हो गयीं | सभी के मुंह अपने सबसे बड़े आकार में खुले हुए थे | आज होने वाली दोनों मौतों का भय वहाँ मौजूद हर शख्स के चेहरे से साफ़ देखा जा सकता था सिवाय उन दोनों के चेहरे पर , जो खुद मरने जा रहे थे - एक तो साल भर का नादान बच्चा और दूसरा १०-११ साल का वो बहादुर – लंगड़ा – सपने बेचने वाला व्यापारी |
             उस नन्ही सी जान के अंदर आज पता नहीं किस शूरवीर की आत्मा आ गयी थी | उसने अपने शरीर को दायीं तरफ झुकाते हुए अपने दायें हाथ की हथेली को कुछ झपटने के लिए तैयार किया | ट्रेन भी अपना निवाला खाने पहुच चुकी थी लेकिन उसने अपने हाथ में उस नन्हे से बच्चे कि गर्दन को झटके से फंसाते हुए अपनी पूरी ताकत से एक छलांग मारी और रेल के मुह से उसका निवाला छीन लिया |
             आखिर जीत साहस कि हुई | सभी लोगों के चेहरे का भय आश्चर्य में बदल चुका था| नशे में धुत वो आदमी अब भी खुद से ही कुछ बडबडा रहा था | लोग उस बच्चे की बहादुरी की तारीफ करने लगे | तभी उनमे से एक शक्की लहजे में बोला-“लेकिन वो तो लंगड़ा था ना ?”
             “अरे साब ये तो इन लोगों के हम शरीफों को ठगने के तरीके होते हैं , हमें उल्लू बनाता था वो |”, दूसरे ने कुछ शिकायती किस्म का जवाब दिया |
              मेरे मन में भी उधेड़बुन चल रही थी | एक बच्चे को बचाने के चक्कर में आज उसने अपनी रोजी-रोटी को लात मार दी , अब कोई भी उस पर भरोसा नहीं करेगा , भले ही वो कितने भी दिन से भूखा हो | क्या जरूरत थी उसे बैसाखी छोडकर भागने की ? यही बैसाखी ही तो उसकी रोजी का मुख्य जरिया थी, आज वो राज खुल गया | लेकिन शायद इसी को इंसानियत कहते हैं , जब एक इंसान किसी दूसरे इंसान के लिए अपना सब कुछ बिना सोचे समझे दांव पर लगा देता है और शायद इसी को बहादुरी कहते हैं जब एक इंसान की आँखों में अपनी मौत का खौफ एक बार भी नहीं झलकता |
               और सबसे बड़ी बात कि इंसानियत और बहादुरी किसी विद्यालय, कोचिंग या सभ्य समाज में नहीं सिखाई जाती |ये तो देश के उस भविष्य के दिल में भी हो सकती हैं जो क्रोसिंग पर हाथ में कटोरा लिए खड़ा होता है |
               रेलगाड़ी अपनी पूरी गति के साथ क्रोसिंग को पार कर रही थी | उसके पहियों की खट-खट की आवाज अब साफ़ सुनाई दे रही थी | गुजरती हुई रेलगाड़ी के डिब्बों के बीच की खाली जगह से उस व्यापारी की काली-काली शक्ल को धुंधला सा देखा जा सकता था , जिसकी बहादुरी को शायद कोई याद भी नहीं रखेगा | वो नन्हा व्यापारी भी शायद इस बात को जानता होगा और उस वक्त शायद शहर की किसी दूसरी क्रोसिंग के बारे में सोच रहा होगा जहां कल से वो फिर हाथ में कटोरा लेकर सपने बेचेगा |
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1 Oct 2012

लकीरें


उस सुबह जब आँख खोलीं , थीं लकीरें 

किसने आखिरकार खींची ये लकीरें ,

कल तलक हम साथ हँसते , साथ रहते

आज दोनों को अलग करतीं लकीरें ||


साथ थे , पर आज से दोनों अलग हैं , 

अब नहीं वो शाम की महफ़िल सजेंगीं ,

उस राह पर तो आज भी निकलेगा तू , पर

अब नहीं वो राह मेरे घर रुकेंगीं ,

चौपाल पर बैठूंगा जाके रोज , लेकिन

अब नहीं साझे की वो चिलमें जलेंगीं,

प्यार अपना आज कम लगने लगा है ,

प्यार से शायद बड़ी हैं ये लकीरें ||


इस साल भी रमजान होगा घर हमारे , 

और सेवैयों की महक रुकेंगीं कैसे ,

इस साल भी होली का रंग तुझ पर गिरेगा ,

रंगों को , खिंची धुंधली लकीरें दिखेंगी कैसे ,

इस साल भी तो जन्मदिन होंगे हमारे ,

और दुआएं सरहदों में बंधेंगी कैसे ,

कल तलक खुशियाँ और गम सब बांटते थे ,

किस तरह इनको भी रोकेंगी लकीरें ||


आज भी घर से निकल , कुछ छोटे बच्चे 

आवाज सरहद पार शायद दे रहे हैं ,

आज भी सब साथ ही खेलेंगे कंचे ,

लकीरों को पार करते दिख रहे हैं ,

सरहदें हैं बीच में उनको फरक क्या ,

आज भी सब एक जैसे लग रहे हैं ,

हम भी लकीरों पर ही अब बैठा करेंगे ,

किस तरफ के हैं बता दें , फिर लकीरें ||
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