1 Oct 2012

लकीरें


उस सुबह जब आँख खोलीं , थीं लकीरें 

किसने आखिरकार खींची ये लकीरें ,

कल तलक हम साथ हँसते , साथ रहते

आज दोनों को अलग करतीं लकीरें ||


साथ थे , पर आज से दोनों अलग हैं , 

अब नहीं वो शाम की महफ़िल सजेंगीं ,

उस राह पर तो आज भी निकलेगा तू , पर

अब नहीं वो राह मेरे घर रुकेंगीं ,

चौपाल पर बैठूंगा जाके रोज , लेकिन

अब नहीं साझे की वो चिलमें जलेंगीं,

प्यार अपना आज कम लगने लगा है ,

प्यार से शायद बड़ी हैं ये लकीरें ||


इस साल भी रमजान होगा घर हमारे , 

और सेवैयों की महक रुकेंगीं कैसे ,

इस साल भी होली का रंग तुझ पर गिरेगा ,

रंगों को , खिंची धुंधली लकीरें दिखेंगी कैसे ,

इस साल भी तो जन्मदिन होंगे हमारे ,

और दुआएं सरहदों में बंधेंगी कैसे ,

कल तलक खुशियाँ और गम सब बांटते थे ,

किस तरह इनको भी रोकेंगी लकीरें ||


आज भी घर से निकल , कुछ छोटे बच्चे 

आवाज सरहद पार शायद दे रहे हैं ,

आज भी सब साथ ही खेलेंगे कंचे ,

लकीरों को पार करते दिख रहे हैं ,

सरहदें हैं बीच में उनको फरक क्या ,

आज भी सब एक जैसे लग रहे हैं ,

हम भी लकीरों पर ही अब बैठा करेंगे ,

किस तरफ के हैं बता दें , फिर लकीरें ||
.
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.

19 comments:

  1. Intense.. Very well written & emotional.

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  2. बहुत ही बढ़िया आकाश जी

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  3. बहुत सुन्दर....
    आखरी पंक्ति ने जान डाल दी....
    अच्छे एहसास...

    अनु

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    1. really mam, you are very supportive to me .
      thnx a lot from the bottom of my heart.

      regards.
      -aakash

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  4. aap sundar likhte hain aakash...aise hi koshishen zaari rakhen...

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    1. ये कलम ही अब साँसें हैं मेरी ,
      चाहूँ भी तो कैसे रोक दूँ इन्हें |
      -आकाश

      जरुर mam, कोशिशें अनवरत जारी रहेंगी , बस आपका आशीष रहे |
      regards.

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  5. हम भी लकीरों पर ही अब बैठा करेंगे ,

    किस तरफ के हैं बता दें , फिर लकीरें ||
    .बहुत सुंदर एवं दमदार ...

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    1. लकीरें हैं तो रहने दो ,
      किसी ने रूठकर गुस्से में शायद खींच दीं थीं ,
      इन्हीं को अब बनाओ पाला
      और आओ कबड्डी खेलते हैं |
      लकीरें हैं तो रहने दो |
      -गुलजार

      mam, ये वो पंक्तियाँ हैं जिन्होंने मुझे लगभग 1 महीना बेचैन रखा और नतीजा ऊपर लिखी कविता है | मुझे खुशी है कि आपको पसंद आई |
      धन्यवाद |

      regards.

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  6. मैं यहाँ पर पहली बार आया हूँ..और बहुत बढ़िया लिखा हैं...आपने....यह कविता |

    आजकल यह सरहदे तो दुश्मन बन बैठी हैं इंसानियत की.....

    रीतेश आगरा,,

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    1. वो शख्स आधी रात को ही छिप गया होगा ,
      मेरे तुम्हारे बीच जिसने सरहदें खींचीं |
      -आकाश

      thanx sir for your visit .
      regards.

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  7. कविता बहुत अच्छी लगी बधाई |
    आशा

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    1. धन्यवाद mam,
      आप जैसे अनुभवी लोगों की बधाई पाकर हौसले आसमान छूने लगते हैं |

      regards.
      -aakash

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  8. Really intense!! i enjoyed the mixing of various themes using just one word!

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  9. वाह !!! जिस तरह से आप भावों को उकेरते है अक्षरों से , वह अपने आप में सृजन है , और सृजन में यदी भाव की प्रधानता नही तो समझईये, बस नीरस और बेकार शब्दो की उलट फेर है , बहतर होगा की हम शब्दकोष के लिये कोई और किताब पढ ले...

    आपके भाव प्रधान लेखक में एक प्रशंसक का नाम शामिल करें " अनुराग .. "

    बहुत ही अच्छा लेखन ... !!!

    एहसास

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    1. हौसलाअफजाई का बहुत बहुत शुक्रिया अनुराग जी |
      भाव ही मेरी पूँजी हैं , कोशिश करूँगा और अच्छा लिखने की |

      सादर
      -आकाश

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  10. कविता बहुत अच्छी लगी.... शुभकामनाएँ !!
    समय मिले तो कभी ....आदत मुस्कुराने की पर पधारें !
    http://sanjaybhaskar.blogspot.in

    @ संजय भास्कर

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  11. सरल शब्दों में बात गहरी करते हो, आप तो हमारी ही बिरादरी के लगते हो :)
    लकीरें .... बहुत उम्दा लिखा है यार .... दो बार पढे हैं, इतनी अच्छी लगी हमे !

    अगर मैं सही समझ पाया हूँ तो ये एक लाइन अर्ज़ है :
    "उस पार भेजीं थीं कुछ राखीयाँ.....सरहद पर लगे तार ने रोक ली !"

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