एक चिट्ठी राम के नाम -
मूरत में बसने वाले राम ,
दुनिया में फिर आ जाओ ,
भूखे कैसे सोते हैं ,
आकर खुद अनुभव कर जाओ |
मगर जन्म लेना अबकी तुम ,
किसी गरीब के घर में ,
बचपन कैसे खोते हैं ,
आकर खुद अनुभव कर जाओ |
मंदिर के भीतर तुम अपनी ,
मूरत पाओगे ; संपन्न-सुखी ,
बाहर बच्चे क्यूँ रोते हैं ,
आकर खुद अनुभव कर जाओ |
रहकर दुनिया में देखो ,
तेरे नाम पे कितने क़त्ल हुए ,
लाशों को कैसे ढोते हैं ,
आकर खुद अनुभव कर जाओ |
एक बार ज़रा तुम भी टूटो ,
हालातों की मुट्ठी में ,
हम हिम्मत कैसे खोते हैं ,
आकर खुद अनुभव कर जाओ |
रामराज्य तो कहीं नहीं ,
रावण से बदतर हालत है ,
फिर भी कैसे खुश होते हैं ,
आकर खुद अनुभव कर जाओ |
भले अँधेरे फैले हों ,
पर दिल में रोज सवेरे के
हम सपने कैसे बोते हैं ,
आकर खुद अनुभव कर जाओ |
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कितने भी आराम के सुख साधन जुटा लीजिए , बचपन की वो बेफिक्र नींद फिर नहीं मिलने वाली |
वो नींद जो आँखों की कोरों में सोती रहती है , हमारे उठने के बाद भी ,
वो नींद जो तकिये पर अपनी निशानी छोड़ जाती है , वो बेफिक्र नींद फिर नहीं मिलने वाली :(
झुकती सी अँखियाँ ,
जम्हाती बतियाँ ,
नाजुक से गालों पे तकिये की छाप ,
आँखों की कोरों ,
में नींदें सोयीं ,
होठों की कोरों से बहती सी लार |
कुछ देर तक ,
नींद से लड़ना ,
फिर हार कर धम्म से तकिये पे गिरना ,
माँ का बुलाना ,
आवाज देकर ,
झुंझला के तकिये से कानों को ढंकना |
कुछ देर सोना ,
सोने को रोना ,
जल्दी से एक ख्वाब ,
आँखों में बोना ,
फिर से , मैं हर रात , ये मांगता हूँ ,
वो नींद , इक रात , फिर से तो आये ,
सोऊँ मैं , फिर से , बच्चा हूँ जैसे ,
कोई ख्वाब , प्यारा सा , फिर से तो आये ,
मैं रात भर , कितना बेफिक्र सोया ,
फिर गाल पर उसकी निशानी दिखे ,
नींद पलकों पे बैठे , फिर ओस बनकर ,
खोलूं तो औंघाता पानी दिखे ,
दो मिनट देर तक ,
अब भी सोता हूँ पर ,
अब मुझे कोई आकर जगाता नहीं ,
कानों पे तकिया ,
रखता हूँ अब भी ,
प्यार से कोई उसको हटाता नहीं |
फिर बुलाए कोई ,
फिर जगाये कोई ,
मुझको गोदी में फिर से ,
उठाये कोई ,
फिर कोई रात हो ,
मेरी माँ साथ हो ,
फिर मैं बचपन जियूं ,
उससे फिर जिद करूँ –
“दो मिनट तो ठहर ,
माँ ,
मैं उठता हूँ न | ”
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