28 Nov 2012

तुम कुछ-कुछ मेरे जैसे हो



अपनी आदत में कहीं मेरा भी अक्स पाओगे ,

तुम कुछ-कुछ मेरे जैसे हो ,

आईना गौर से देखोगे , समझ जाओगे ,

तुम कुछ-कुछ मेरे जैसे हो ||


भले कितना बदल लो तुम , मुझे भुलाने के लिए , 

अपनी परछाई में मेरा भी रंग पाओगे ,

तुम कुछ-कुछ मेरे जैसे हो ||


तुम्हे क्यूँ लोग मेरे नाम से बुलाते हैं , 

पूछोगे किसी से , समझ जाओगे ,

तुम कुछ-कुछ मेरे जैसे हो ||


मेरी गली में न आना बिना ओढ़े नकाब ,

मेरी तरह तुम भी बदनाम किये जाओगे ,

तुम कुछ-कुछ मेरे जैसे हो ||


मेरी मौत पर भी लोग नहीं रोयेगे ,

मेरी जगह बस तुम बैठा दिए जाओगे ,

तुम कुछ-कुछ मेरे जैसे हो || 


मुझको जन्नत में नहीं जाना , मगर डरता हूँ 

मेरी वजह से तुम दोजख में चले जाओगे ,

तुम कुछ-कुछ मेरे जैसे हो ||


आईना गौर से देखोगे , समझ जाओगे ,

तुम कुछ-कुछ मेरे जैसे हो ||
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24 Nov 2012

मंजिल और रास्ता

सफलता की दौड़ , रफ़्तार बहुत तेज रखनी पड़ती है | सबको मंजिल तक पहुँचने की जल्दी रहती है |
लेकिन क्या हम जिस मंजिल के पीछे दौड़ रहे , वास्तविकता में वही हमारी मंजिल है ?
क्यूँ हम में से ज्यादातर उस काम को कर रहे हैं जिसमें उनका मन ही नहीं लगता ?
क्या भेड़ की तरह आँख मूंदकर बस चल भर देने से मंजिल मिल जायेगी ?


कभी चंद लम्हों को रुक कर तो देखो ,

आँखों पे पलकों को ढँक कर तो देखो ,

बहुत खूबसूरत है ख्वाबों की दुनिया ,

ख्वाबों में रंगों को भरकर तो देखो ,

मंजिल को पाने का मतलब हमेशा ,

ख्वाबों को अपने भुलाना नहीं है ,

तेरी आँखें जागी हैं इतना सफर में ,

कि सोने का मतलब तो जाना नहीं है ||



सफर कितना लम्बा , तुझे ये पता है ?

सफर कौन तेरा , क्या ये जानता है ?

तेरी कौन मंजिल , कभी सोच पाया ?

क्या सपनों को ढंग से कभी देख पाया ?

चलता तो है भेड़ भी मस्त होकर ,

मगर सिर्फ चलना ही पाना नहीं है ,

तेरी आँखें जागी हैं इतना सफर में ,

कि सोने का मतलब तो जाना नहीं है ||



जिस पर सभी चल रहे आँख मूंदे ,

उसी राह चलना जरूरी नहीं है ,

सभी का सफर उतना अच्छा हो ; शायद ,

सभी के लिए ये जरूरी नहीं है ,

तेरी क्या खुशी है ; कभी खुद से पूछो ,

कभी अपने रस्ते भी ; चलकर तो देखो ,

मंजिल तो प्यारी लगेगी ; मगर ,

रास्ता खुद-ब-खुद एक साथी लगेगा ,

तू चल तो पड़ा है ; मूक बनकर डगर ; वो ,

जिसे आज तक अपना माना नहीं है ,

तेरी आँखें जागी हैं इतना सफर में ,

कि सोने का मतलब तो जाना नहीं है ||



ये पल ; एक पल में गुजर जायेगा ,

तू क्यूँ अगले पल के भरोसे टिका है ,

कितने बड़े सूरमा भी हुए हैं ,

ये पल आज तक न किसी को रुका है ,

अभी ये जो पल है ; यही तेरा पल है ,

तू जी ले तेरी जिंदगी आज इसमें ,

नहीं सोच अगला कोई पल मिलेगा ,

बचे ख्वाब अपने जियेगा तू जिसमें ,

उसे मान मंजिल जिसे दिल भी माने ,

तो हर पल में फिर से उम्मीदें जगेंगी,

तेरी जिंदगी है ; तुझी को है जीना

मगर “सिर्फ जीना” ही जीना नहीं है ,

तेरी आँखें जागी हैं इतना सफर में ,

कि सोने का मतलब तो जाना नहीं है ||
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16 Nov 2012

आगाज


जो सूनी गली में कोई शोर मचता ,

जो मुर्दों के घर में कोई रोज जगता ,

जब इंसा की नीयत न सिक्कों से तुलती ,

जब किस्मत की कुण्डी भी मेहनत से खुलती,

मैं फिर से समझता ये आगाज तो है ,

नए इक सफर का ये अंदाज तो है ||

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जो सीली हुई थीं , मशालें वो जलतीं ;

जो सिमटी हुई थीं , आवाजें वो उठतीं ;

जब फिर से निकलता, कभी लाल सूरज ;

जब मंदिर में मिलती , कोई सच्ची मूरत ;

मैं फिर से समझता ये आगाज तो है ,

नयी इक सुबह का ये अंदाज तो है ||

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कभी “काश” दिल में समंदर उफनता ;

कभी “काश” फिर वो दीवारें दरकतीं ;

कभी चीखता दूर बैठा हिमालय ;

कभी चाँद से “काश” ज्वाला निकलती ;

मैं फिर से समझता ये आगाज तो है ;

नयी जिंदगी का ये अंदाज तो है ||
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14 Nov 2012

बाल-दिवस


आज उनका दिन है , जिनके दिलों में ईश्वर बसता है , जिनकी मुस्कान के जरिये अल्लाह हम पर अपना करम बरसाता है | 
लेकिन एक कड़वा सच ये भी है -


झोपड़े के नीचे मुस्कुराता ,
एक बेचारा बचपन ,
ना जाने कब बीत गया ,
उसका वो प्यारा बचपन ||

कुछ के घर में माँ बाप नहीं ,
कुछ घर छोड़ कर भागे हैं ,
कुछ बहकावे में निकल लिए ,
कुछ पैदा हुए अभागे हैं ,
चाहे जैसे भी आये हों ,
सबकी किस्मत कुछ मिलती है ,
न कागज की वो नावें हैं ,
न झूलों पर बैठा बचपन ||

इनके हमउम्र सभी बच्चे ,
जब खेल खिलौनों में खुश हैं ,
इनके तो खेल दुकानों में ,
सुबह से ही सज जाते हैं ,
जब बाकी सब गिनती सिखने की ,
घर में कोशिश करते हैं ,
ये बिना सीखे गिनती ; धंधे का
खूब हिसाब लगाते हैं ,
जब बाकी सब खाना खाते हैं ,
माँ के हाथों से इठलाकर ,
ये पिचके हुए कटोरे में ,
कच्चे से चावल खाते हैं ,
जब बाकी सब माँ के सिरहाने ,
लोरी सुनकर सोते हैं ,
ये फटी हुई चादर को ओढ़े ,
सर्दी की रात बिताते हैं ,
जीवन केवल बीत रहा है ,
अंधकार में लिपटा कल ,
सोचो तो कैसा होता ,
जो होता यही हमारा बचपन ||

जब , बच्चों की मासूम निगाहें ,
जन्नत की सैर कराती हैं ,
तो क्यूँ कुछ बच्चों की ऑंखें फिर ,
सूखी गंगा बन जाती हैं ,
कुछ तो उनके दिल में है ,
उनके भी कुछ सपने हैं ,
उनकी भी कोई जरुरत है ,
कुछ हक उनके भी अपने हैं ,
दे दो एक मुस्कान उन्हें ,
कुछ सपने और एक सुन्दर कल ,
उनको फिर से लौटा दो ,
उनका वो प्यारा बचपन ||
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11 Nov 2012

दीपावली - एक दिया ऐसा हो


सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं 
और एक उम्मीद -


एक दिया ऐसा भी हो , जो

भीतर तलक प्रकाश करे ,

एक दिया मुर्दा जीवन में ,

फिर आकर कुछ श्वास भरे | 


एक दिया सादा हो इतना ,

जैसे साधु का जीवन ,

एक दिया इतना सुन्दर हो ,

जैसे देवों का उपवन | 


एक दिया जो भेद मिटाए ,

क्या तेरा क्या मेरा है ,

एक दिया जो याद दिलाये ,

हर रात के बाद सवेरा है | 


एक दिया उनकी खातिर हो ,

जिनके घर में दिया नहीं ,

एक दिया उन बेचारों का ,

जिनको घर ही दिया नहीं | 


एक दिया सीमा के रक्षक ,

अपने वीर जवानों का ,

एक दिया मानवता-रक्षक ,

चंद बचे इंसानों का | 


एक दिया विश्वास दे उनको ,

जिनकी हिम्मत टूट गयी ,

एक दिया उस राह में भी हो ,

जो कल पीछे छूट गयी | 


एक दिया जो अंधकार का ,

जड़ के साथ विनाश करे ,

एक दिया ऐसा भी हो , जो

भीतर तलक प्रकाश करे ||
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7 Nov 2012

काश....

देखिये , कोई भी हंसेगा नहीं | ये प्यार-व्यार के बारे में हमसे लिखा नहीं जाता है | बहुत कोशिश करके कभी कुछ लिखा था  -



नजर खामोश रहती गर् जुबाँ कुछ बात कर पाती, 

कदम मासूम रहते जो तू हमारे साथ चल पाती ,

न जख्म यूँ पकता ,न तो नासूर यूँ बनते ,

गर् जख्म होती तू , तू ही मरहम लगा पाती !! 



मैं रात को छत पे सुकूं से नींद भर सोता , 

हर सुबह तू गर् प्यार से मुझको जगा जाती !! 


रहम मुझ पर भी होता उस खुदा का टूट कर हरदम , 

तेरी नजरो की रहमत गर् मुझे इक बार मिल जाती !! 


महकता सा मुझे महसूस होता कुदरत का हर जर्रा , 

तेरी साँसों की खुशबू जो मेरी साँसों में बस जाती !! 


मैं राह पर मुड़ – मुड़ के तुझको देखता था “काश...” , 

गली के मोड़ पर मुड़ने से पहले तू भी मुड़ जाती !!
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2 Nov 2012

बाल-लीला

मेरी माँ की बनायी एक तस्वीर को देखकर अचानक ही कुछ लिखने लगा | बेशक तस्वीर के साथ न्याय नहीं कर पाया हूँ | लेकिन उनके आशीर्वाद से कुछ टूटा-फूटा लिखा तो है |

मेरी पसंदीदा तस्वीर
(वो कहते हैं न , तस्वीरें बोलती हैं)
ये पूरी रचना मैंने अपनी माँ के नजरिये से लिखी है तो इसकी नायिका वो ही होंगीं -

आज रात को कान्हा जी , सपने में मेरे आये ,

देखे तिरछी चितवन करके , मंद-मंद मुस्काए ,

बोले माई माखन दे दे , तेरा ही हो जाऊं ,

जो लीला तू देखन चाहे , वो तोहे दिखलाऊं ,

मैं सोची ये भाग्य हैं मेरे , कान्हा यहाँ पधारे ,

कुछ माखन के बदले ले लूँ , यश-वैभव मैं सारे ,

ये तो हैं साक्षात् प्रभू , जो मांगूं वो दे देंगे ,

दुःख-दारिद्र्य औ कष्ट सभी , पल में ये हर लेंगे ,

धन-दौलत की कमी न होगी , जग में होगा नाम ,

मटकी भर माखन के बदले , इतना बड़ा ईनाम ,


हरसाई , कुछ सकुचाई सी , मटकी तो ले आई ,

पर न जाने फिर क्या सूझा , उसको न दे पाई ,

ठिठक गए फिर कदम वहीँ पर , मन में उठा विचार ,

फिर देखी मोहन की सूरत , गिरी अश्रु की धार ,

वो मीठे पानी का सागर थे , और मुझ मूरख ने क्या माँगा ,

अपनी प्यास बुझाने को , बस इक अंजुली भर जल माँगा ,

हुआ सत्य का ज्ञान मुझे , सही समय पर मति डोली ,

मटकी फिर से वापस रख के , मन ही मन मैं ये बोली ,


हे लीलाधर , अब तुम मुझको परमानंद का भान कराओ , 

जो सबसे अनुपम लीला हो , आज वही मुझको दिखलाओ ,

नहीं मुझे यश और वैभव दो , नहीं मुझे धनवान करो ,

बालरूप अपना दिखला दो , इतना सा एहसान करो ,


जाने क्या मन में सूझी , छड़ी उठाकर डांटा उसको ,

तू तो माखनचोर है कलुए , क्यूँ अपना माखन दूँ तुझको ,

चल भाग यहाँ से वरना तेरी , मैया को बुलवाऊँगी ,

घर-घर माखन चोरी करता , ये सबको बतलाऊंगी ,

ये सुनकर वो श्याम-सलोना , जाने क्यूँ क्षण भर मुस्काया ,

फिर आँखों में आंसूं भर के , हठी-बाल का रूप दिखाया ,

वर्णन की सीमा के बाहर , इतना सुन्दर दृश्य हुआ ,

रोता हुआ कन्हैया था बस , और सब कुछ अदृश्य हुआ ,


सर पर सुन्दर मोर मुकुट था , कानों में अनुपम कुंडल ,

श्याम वर्ण की अतुल छटा थी , घुंघराले बालों का दल ,

गले एक मुक्तक माला थी , श्वेत मोतियों से संवरी ,

दिव्य नील-कमल के ऊपर , ओस-बूँद जैसे बिखरी ,

नीले अम्बर पर सूरज की , पहली रश्मि गिरी हो जैसे ,

उससे भी सुंदर उस पर , पीताम्बर सजता था ऐसे ,

देवलोक से रत्न मंगाकर कमर-करधनी बनवाई थी ,

उस पर प्यारे मोहन ने , एक अद्भुत वंशी लटकाई थी ,

मानों सब अलंकारों ने मिलकर , अपना सम्मान बचाया हो ,

मोहन पर सजकर , उसको ही , अपना श्रृंगार बनाया हो ,


मैं तो उसी दृश्य सुख में , इतने गहरे तक जा अटकी ,

जाने कब मोहन आ पहुंचा , वहाँ जहां रखी थी मटकी ,

घुटनों बल विचरण करता , माखन तक पहुंचा छैल-छबीला ,

बालरूप की ये लीला ही , उसकी सबसे अनुपम लीला ,

मटकी को तिरछा करके , उसमे अपना हाथ घुसाया ,

कुछ खाया , कुछ मुंह पर चुपड़ा , और कुछ धरती पर बिखराया ,

आँखों में प्रेमाश्रु भर के , मैंने उसे पुकारा ,

एक बार पुनः तिरछी चितवन से , उसने मुझे निहारा ,

एक हलकी सी मुस्कान चलायी , मुझ पर जादूगर ने ,

परमानंद दिया मुझको , उस नन्हे मोहन ने ,

पास गयी मैं उसके बरबस , गोदी में उसे उठाया ,

सौभाग्य था मेरा , मैंने , अपने हाथों से उसे खिलाया ,

वो जी भर के दुलराया मुझसे , मैंने भी मन भर के लाड़ किया ,

छक कर माखन खाया उसने , शेष मुझे प्रसाद दिया ,


तभी हिलाया मुझे किसी ने , नींद अचानक टूट गयी ,

दिवास्वप्न की रात , सुबह के साथ ही पीछे छूट गयी ,

जब उठी नींद से तो पाया , होठों पर जैसे कुछ खट्टा था ,

मोहन ही जाने स्वप्न था वो , या फिर किस्सा सच्चा था ,

बस एक और अर्जी सुन लो , जो विश्वास है तुम पर न छूटे ,

जब पुनः कभी तुम स्वप्न में आओ , वो स्वप्न कभी फिर न टूटे ||
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तस्वीर और कविता दोनों का श्रेय - श्री मती विजय श्री मिश्रा
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