उस सुबह जब आँख खोलीं , थीं लकीरें
किसने आखिरकार खींची ये लकीरें ,
कल तलक हम साथ हँसते , साथ रहते
आज दोनों को अलग करतीं लकीरें ||
साथ थे , पर आज से दोनों अलग हैं ,
अब नहीं वो शाम की महफ़िल सजेंगीं ,
उस राह पर तो आज भी निकलेगा तू , पर
अब नहीं वो राह मेरे घर रुकेंगीं ,
चौपाल पर बैठूंगा जाके रोज , लेकिन
अब नहीं साझे की वो चिलमें जलेंगीं,
प्यार अपना आज कम लगने लगा है ,
प्यार से शायद बड़ी हैं ये लकीरें ||
इस साल भी रमजान होगा घर हमारे ,
और सेवैयों की महक रुकेंगीं कैसे ,
इस साल भी होली का रंग तुझ पर गिरेगा ,
रंगों को , खिंची धुंधली लकीरें दिखेंगी कैसे ,
इस साल भी तो जन्मदिन होंगे हमारे ,
और दुआएं सरहदों में बंधेंगी कैसे ,
कल तलक खुशियाँ और गम सब बांटते थे ,
किस तरह इनको भी रोकेंगी लकीरें ||
आज भी घर से निकल , कुछ छोटे बच्चे
आवाज सरहद पार शायद दे रहे हैं ,
आज भी सब साथ ही खेलेंगे कंचे ,
लकीरों को पार करते दिख रहे हैं ,
सरहदें हैं बीच में उनको फरक क्या ,
आज भी सब एक जैसे लग रहे हैं ,
हम भी लकीरों पर ही अब बैठा करेंगे ,
किस तरफ के हैं बता दें , फिर लकीरें ||
.
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Intense.. Very well written & emotional.
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया आकाश जी
ReplyDeleteबहुत सुन्दर....
ReplyDeleteआखरी पंक्ति ने जान डाल दी....
अच्छे एहसास...
अनु
really mam, you are very supportive to me .
Deletethnx a lot from the bottom of my heart.
regards.
-aakash
aap sundar likhte hain aakash...aise hi koshishen zaari rakhen...
ReplyDeleteये कलम ही अब साँसें हैं मेरी ,
Deleteचाहूँ भी तो कैसे रोक दूँ इन्हें |
-आकाश
जरुर mam, कोशिशें अनवरत जारी रहेंगी , बस आपका आशीष रहे |
regards.
हम भी लकीरों पर ही अब बैठा करेंगे ,
ReplyDeleteकिस तरफ के हैं बता दें , फिर लकीरें ||
.बहुत सुंदर एवं दमदार ...
लकीरें हैं तो रहने दो ,
Deleteकिसी ने रूठकर गुस्से में शायद खींच दीं थीं ,
इन्हीं को अब बनाओ पाला
और आओ कबड्डी खेलते हैं |
लकीरें हैं तो रहने दो |
-गुलजार
mam, ये वो पंक्तियाँ हैं जिन्होंने मुझे लगभग 1 महीना बेचैन रखा और नतीजा ऊपर लिखी कविता है | मुझे खुशी है कि आपको पसंद आई |
धन्यवाद |
regards.
मैं यहाँ पर पहली बार आया हूँ..और बहुत बढ़िया लिखा हैं...आपने....यह कविता |
ReplyDeleteआजकल यह सरहदे तो दुश्मन बन बैठी हैं इंसानियत की.....
रीतेश आगरा,,
वो शख्स आधी रात को ही छिप गया होगा ,
Deleteमेरे तुम्हारे बीच जिसने सरहदें खींचीं |
-आकाश
thanx sir for your visit .
regards.
कविता बहुत अच्छी लगी बधाई |
ReplyDeleteआशा
धन्यवाद mam,
Deleteआप जैसे अनुभवी लोगों की बधाई पाकर हौसले आसमान छूने लगते हैं |
regards.
-aakash
Really intense!! i enjoyed the mixing of various themes using just one word!
ReplyDeletethnx shrey..
Deleteसुन्दर कविता!
ReplyDeleteवाह !!! जिस तरह से आप भावों को उकेरते है अक्षरों से , वह अपने आप में सृजन है , और सृजन में यदी भाव की प्रधानता नही तो समझईये, बस नीरस और बेकार शब्दो की उलट फेर है , बहतर होगा की हम शब्दकोष के लिये कोई और किताब पढ ले...
ReplyDeleteआपके भाव प्रधान लेखक में एक प्रशंसक का नाम शामिल करें " अनुराग .. "
बहुत ही अच्छा लेखन ... !!!
एहसास
हौसलाअफजाई का बहुत बहुत शुक्रिया अनुराग जी |
Deleteभाव ही मेरी पूँजी हैं , कोशिश करूँगा और अच्छा लिखने की |
सादर
-आकाश
कविता बहुत अच्छी लगी.... शुभकामनाएँ !!
ReplyDeleteसमय मिले तो कभी ....आदत मुस्कुराने की पर पधारें !
http://sanjaybhaskar.blogspot.in
@ संजय भास्कर
ReplyDeleteसरल शब्दों में बात गहरी करते हो, आप तो हमारी ही बिरादरी के लगते हो :)
लकीरें .... बहुत उम्दा लिखा है यार .... दो बार पढे हैं, इतनी अच्छी लगी हमे !
अगर मैं सही समझ पाया हूँ तो ये एक लाइन अर्ज़ है :
"उस पार भेजीं थीं कुछ राखीयाँ.....सरहद पर लगे तार ने रोक ली !"