पतंगों का मौसम है | कल गणतंत्र दिवस भी है | एक ख्वाहिश है, जो शायद बहुत सारे दिलों में होगी -
मुहब्बत के मांझे से कसकर
बंधी हो,
ऐसी पतंग हम उड़ायें |
जिसमें अमन की बातें लिखीं
हों,
ऐसी पतंग हम उड़ायें |
पतंगें क्या जानें कि सरहद
कहाँ है,
किस ओर उड़ना, जाना कहाँ है?
इस ओर उड़ती है, कटती कहीं
हैं,
कटकर न जाने, गिरती कहीं
हैं,
जिस छत पे पहुंचीं, उसका
क्या मज़हब,
मज़हब से आखिर, उनको क्या
मतलब,
वो तो मुहब्बत का पैगाम
लायीं,
होठों पे बच्चों के मुस्कान
लायीं,
और कुछ उम्मीदों को खुशबू
बनाकर,
उसमें था मैंने रखा छिपाकर,
जब सांस लोगे महसूस होगी,
उम्मीद तुझमें भी महफूज
होगी,
तुमको भी आयेंगे सपने
सुहाने,
जब न रहेंगे हम तुम बेगाने,
तेरी भी छत पर, मेरी भी छत
पर,
फिर उस सुबह एक सूरज खिलेगा,
मुस्लिम मिलेगा मंदिर सजाते,
हिंदू अज़ानों को पढता
दिखेगा,
गुपचुप सी कानों में बातें
भी होंगीं,
ओस में लिपटी रातें भी
होंगीं,
कोहरे छटेंगे आँखों से अपने,
उजले से होंगे मुहोब्बत के
सपने,
जिस रोज नफरत की अर्थी
उठेगी,
उस रोज धरती ये फिर से
सजेगी,
होली की गुझियाँ बनेगीं
तेरे घर,
ईद की सेंवई पकेगी मेरे घर,
फिर एक होंगे दोनों के झूले,
संग मिल के हम तुम अम्बर को
छू लें,
जिसमें न कोई होगा पराया,
हर दिल में बेहतर इंसाँ
समाया,
ऐसा जहाँ हम बनायें,
ऐसा जहाँ हम बनायें |
ऐसा जहाँ हम बनायें |
मुहब्बत के मांझे से कसकर
बंधी हो,
ऐसी पतंग हम उड़ायें |
.
@!</\$}{
.
Bahut sundar...
ReplyDeletehttp://ehsaasmere.blogspot.in/2013/01/blog-post_26.html
बहुत बढ़िया ,आकाश जी वो दिन ज़रूर आयेगा
Deleteदेश के 64वें गणतन्त्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!
ReplyDelete--
आपकी पोस्ट के लिंक की चर्चा कल रविवार (27-01-2013) के चर्चा मंच-1137 (सोन चिरैया अब कहाँ है…?) पर भी होगी!
सूचनार्थ... सादर!
बहुत ही सुन्दर रचना..
ReplyDeleteहर पंक्ति अमन और शांति ,भाईचारे का पैगाम लिए है..
अति सुन्दर...
गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएँ....
:-)
पतंगें क्या जानें कि सरहद कहाँ है,
ReplyDeleteकिस ओर उड़ना, जाना कहाँ है,
इस ओर उड़ती है, कटती कहीं हैं,
कटकर न जाने, गिरती कहीं हैं,
जिस छत पे पहुंचीं, उसका क्या मजहब,
मजहब से आखिर, उनको क्या मतलब,
वो तो मुहोब्बत का पैगाम लायीं,
होठों पे बच्चों के मुस्कान लायीं,
Bahut sundar
पतंगें क्या जानें कि सरहद कहाँ है,
ReplyDeleteकिस ओर उड़ना, जाना कहाँ है,
इस ओर उड़ती है, कटती कहीं हैं,
कटकर न जाने, गिरती कहीं हैं,
जिस छत पे पहुंचीं, उसका क्या मजहब,
मजहब से आखिर, उनको क्या मतलब,
वो तो मुहोब्बत का पैगाम लायीं,
होठों पे बच्चों के मुस्कान लायीं
वाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति . हार्दिक आभार आपका ब्लॉग देखा मैने और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहि
यह चाह हर युवा के मन का माझा बन जाये ..... पतंग प्यार की उमंग लिए आकाश को छू जाये
ReplyDeleteबहुत सुंदर विचार हैं आकाश! अगर सभी ऐसा सोचने लगें.... तो कोई भेद-भाव की गुंजाइश ही न हो! हर तरफ सिर्फ़ प्यार और प्यार के गीत ही गूंजेंगे...
ReplyDelete~God Bless!!!
बहुत सुन्दर सोच के साथ लिखी है ये कविता आकाश...
ReplyDeleteतेरी भी छत पर, मेरी भी छत पर,
फिर उस सुबह एक सूरज खिलेगा,
मुस्लिम मिलेगा मंदिर सजाते,
हिंदू अज़ानों को पढता दिखेगा,
एक ख्वाब सा लगता है...सच होने की दुआ है.
सस्नेह
अनु
मुहब्बत के मांझे से कसकर बंधी हो,
ReplyDeleteऐसी पतंग हम उड़ायें | lajawab . bahut sunder bhaav.
har koi sune apne dil ki to beshak aisi ummid mahfuj hai har dil me...
ReplyDeleteBahut khub bhaiya...