पतंगों का मौसम है | कल गणतंत्र दिवस भी है | एक ख्वाहिश है, जो शायद बहुत सारे दिलों में होगी -
मुहब्बत के मांझे से कसकर
बंधी हो,
ऐसी पतंग हम उड़ायें |
जिसमें अमन की बातें लिखीं
हों,
ऐसी पतंग हम उड़ायें |
पतंगें क्या जानें कि सरहद
कहाँ है,
किस ओर उड़ना, जाना कहाँ है?
इस ओर उड़ती है, कटती कहीं
हैं,
कटकर न जाने, गिरती कहीं
हैं,
जिस छत पे पहुंचीं, उसका
क्या मज़हब,
मज़हब से आखिर, उनको क्या
मतलब,
वो तो मुहब्बत का पैगाम
लायीं,
होठों पे बच्चों के मुस्कान
लायीं,
और कुछ उम्मीदों को खुशबू
बनाकर,
उसमें था मैंने रखा छिपाकर,
जब सांस लोगे महसूस होगी,
उम्मीद तुझमें भी महफूज
होगी,
तुमको भी आयेंगे सपने
सुहाने,
जब न रहेंगे हम तुम बेगाने,
तेरी भी छत पर, मेरी भी छत
पर,
फिर उस सुबह एक सूरज खिलेगा,
मुस्लिम मिलेगा मंदिर सजाते,
हिंदू अज़ानों को पढता
दिखेगा,
गुपचुप सी कानों में बातें
भी होंगीं,
ओस में लिपटी रातें भी
होंगीं,
कोहरे छटेंगे आँखों से अपने,
उजले से होंगे मुहोब्बत के
सपने,
जिस रोज नफरत की अर्थी
उठेगी,
उस रोज धरती ये फिर से
सजेगी,
होली की गुझियाँ बनेगीं
तेरे घर,
ईद की सेंवई पकेगी मेरे घर,
फिर एक होंगे दोनों के झूले,
संग मिल के हम तुम अम्बर को
छू लें,
जिसमें न कोई होगा पराया,
हर दिल में बेहतर इंसाँ
समाया,
ऐसा जहाँ हम बनायें,
ऐसा जहाँ हम बनायें |
ऐसा जहाँ हम बनायें |
मुहब्बत के मांझे से कसकर
बंधी हो,
ऐसी पतंग हम उड़ायें |
.
@!</\$}{
.