13 Jan 2013

द्रौपदी - आज का भारत

द्रौपदी की ये कहानी बहुत बार पहले भी सुनी जा चुकी है , मैं फिर से सुना रहा हूँ | 
अब ज़रा इसे वर्तमान परिदृश्य में देखते हैं -
  • ध्रतराष्ट्र अर्थात दिल्ली में बैठा मूक राजा जिसे कुछ भी दिखाई नहीं देता, जो कोई भी कड़ा फैसला तो छोडिये, कोई सामान्य फैसला भी अपनी मर्जी से नहीं ले सकता |
  • पाण्डव अर्थात वे व्यक्ति जिन पर द्रौपदी की रक्षा की जिम्मेदारी है लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए उन्होंने ही उसे दांव पर लगा दिया |
  • सभा में मौजूद अन्य सदस्य अर्थात तमाशबीन जनता, जिसकी पसंदीदा पंक्ति है - "मुझे क्या ? ये मेरे घर का मसला नहीं है |", जो कि द्रौपदी की दुर्दशा में उतनी ही जिम्मेदार है जितना कि अन्य कोई |
  • और द्रौपदी अर्थात समस्त पीड़िता स्त्रीलिंग, चाहे वो दिल्ली की बस में चढ़ी 'ज्योति' हो या आये-दिन घाव खाने वाली और अभी हाल ही में अपने दो बेटों की नृशंस हत्या से घायल 'भारत माँ' हो |

किस काम के हो शासक, किस बात की है सत्ता,
जब फैसला कोई भी, खुद से नहीं सुनाया,
इस घर की आबरू पर, जिनकी बुरी नजर है,
उनको ही पुत्र कहकर, अपने गले लगाया,
धिक्कार है धृत-राष्ट्र को, धिक्कार धृत-राजा को है,
द्रौपदी की दुर्दशा के तुम भी भागीदार हो |

हे धर्म के धुरंधर, किस धर्म में लिखा है,
नारी को वस्तु समझो और दांव पर लगाओ,
यदि धर्म नहीं है ये, विरोध करो इसका,
यदि धर्म यही है फिर, आँखें तो न झुकाओ,
धिक्कार है उस धर्म को, धिक्कार धर्मराज को,
द्रौपदी की दुर्दशा के तुम भी भागीदार हो | 

पांच भाइयों में, एक वस्तु सी बंटी मैं 
वो न्याय था तुम्हारा, हे पार्थ प्राण प्यारे ?
जब ढाल सत्य की ही, ये तीर न बने तो,
बेकार ये धनुष है, बेकार बाण सारे,
धिक्कार उस धनुष को, धिक्कार धनुर्धर को,
द्रौपदी की दुर्दशा के तुम भी भागीदार हो | 

जिसने तिनके की तरह, शत्रुओं को चीर डाला 
भीम का शतहस्तसम् वो बल कहाँ पर खो गया है,
या मैं समझूं, झूठ था सब जो कभी सुनते थे हम
या मैं समझूं, अब तुम्हारा रक्त ठंडा हो गया है,
धिक्कार है उस बाहुबल को, धिक्कार उस बली को है
द्रौपदी की दुर्दशा के तुम भी भागीदार हो | 

हे नकुल सहदेव जैसे, इस सभा के दर्शकों,
वीर कहते हो, स्वयं को तुम सभी, धिक्कार है ,
एक मालिक की तरह निज स्वार्थसिद्धि के लिए
दांव पर मुझको लगाने का नहीं अधिकार है | 

किस सोच में हो तुम सभी, क्यूँ भला खामोश हो,
क्या द्रौपदी की लाज रखने, कृष्ण ही अब आयेंगे,
क्या कौरवों के दंभ को, बस वही हैं चीर सकते,
क्या द्रौपदी को चीर केवल, कृष्ण ही दे पाएंगे ? 

एक दुशासन हँस रहा है, तुम सभी की आत्मा में,
कृष्ण कोने में कहीं सहमा हुआ, बिखरा हुआ है,
उस दुशासन को मिटाओ,
कृष्ण को वापस बुलाओ,
वो ही शास्वत कृष्ण है, जो आत्मा में घुल चुका है,
आत्मा को फिर जगाओ,
कृष्ण को वापस बुलाओ,
द्रौपदी का चीर अपने अंत के नजदीक ही है,
कृष्ण खुद को ही बनाओ,
द्रौपदी को तुम बचाओ |
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@!</\$}{
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14 comments:

  1. शाबाश ... ऐसे ही जागो और बाकियों को भी जगाओ ... बहुत बढ़िया लिखा है ... इस धार को बनाए रखो ... बहुत जरूरत है इसकी !

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    1. जरूर , शुक्रिया |

      सादर

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  2. bHAI aapki wo teri droupadi wali baat dil ko chu gayi...

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  3. Kya Baat Kya Baat Kya Baat !!!!

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  4. वो ही शास्वत कृष्ण है, जो आत्मा में घुल चुका है,
    आत्मा को फिर जगाओ..

    बहुत खूब..

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  5. वो ही शास्वत कृष्ण है, जो आत्मा में घुल चुका है,
    आत्मा को फिर जगाओ,
    कृष्ण को वापस बुलाओ,
    बेहद गहनता लिये हुये यह अभिव्‍यक्ति शुरू से लेकर अंत तक ... आवश्‍यकता है आज
    बस आत्‍मा को फिर से जगाने की ...

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  6. किसन भगवान कह गए थी "संभवामि युगे युगे".. इसका मतलब ई नहीं था कि ऊ अपने चलकर आयेंगे.. बहुत अच्छा बात कहे हो बेटा कि किसन भगवान को अपने अंदर जगाने का जरूरत है.. बहुत प्रासंगिक कबिता है.. दिल को छू जाता है!!
    आसीस है!! जीते रहो!!

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  7. Bahut Badhiya.... Uttam.. Aise jago aur desh ko jagao.......

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  8. Bahut pyari rachna...
    sab apni apni swathsiddhi me lage hai ...iss desh me
    http://ehsaasmere.blogspot.in/

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  9. बहुत बढ़िया रचना.....
    बेहद सशक्त भाव उकेरे हैं आकाश...
    ह्रदय से आशीष!!
    अनु

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  10. इस अद्भुत सोच को मैं निर्निमेष देख रही हूँ .... इसे पहले भी पढ़ा, इधर-उधर काम करने में कुछ लिख नहीं सकी . किसी भी लेखन की गहराई में मैं लेखक की आँखों में उमड़ते भावों को देखती हूँ -

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  11. सरे बाजार
    समाज के हाथों
    समाज के सन्मुख
    हुआ मुझ द्रोपदी का चीरहरण
    सामनें थे पर नही आये कृष्ण-------

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