8 Dec 2012

निकुम्भ का इन्तेजार


'तारे जमीन पर' तो सभी ने देखी होगी | कैसे आर्ट टीचर निकुम्भ नन्हे ईशान की मदद करता है | फिल्म का एक आफ्टर-इफेक्ट भी था , हर बच्चा फिल्म देखने के बाद ईशान के भीतर खुद को देख रहा था | उसे ईशान का दर्द अपना दर्द लग रहा था , ईशान की तकलीफ अपनी तकलीफ | हर किसी को अपनी जिंदगी में निकुम्भ का इन्तेजार था | मुझे भी | बदकिस्मती से ये इन्तेजार आज भी वैसा ही जारी है |

"सॉरी सर , लेकिन मुझे ये सब्जेक्ट ज़रा भी समझ नहीं आता |", बहुत डरते हुए मैंने कहा |

कहीं न कहीं मुझे एक उम्मीद थी की शायद वो मेरी कुछ मदद कर सकें , आखिरकार वो मेरे प्रोफ़ेसर थे | पढ़ाई से रिलेटेड मेरी कोई भी तकलीफ वो नहीं समझेंगे तो कौन समझेगा | इसीलिए उन्हें बताना भी जरूरी था | लेकिन शायद उनकी नजर में सिर्फ टॉपर ही इंसान होते हैं |

मेरी बात सुनकर पहले तो थोडा चौंके | शायद उनके कानों को इस जवाब की उम्मीद भी नहीं थी | एक बार ऊपर से नीचे तक मुझे हिकारत भरी नजरों से देखा और फटकारते हुए बोले-

"अगर समझ नहीं आता तो ये ब्रांच ही क्यों चूज की ?"

"सर , अपनी मर्जी से नहीं चुनी | काउंसलिंग से मिली है | अगर ये ब्रांच न लेता तो एन.आई.टी. न मिल पाता |", मैं अपना पक्ष स्पष्ट करते हुए बोला |

उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया , या शायद उन्हें कोई वाजिब जवाब सूझा ही नहीं | एक बार फिर उन्होंने मुझे ऊपर से नीचे तक घूरा -

"रोल नंबर क्या है तुम्हारा ?"

"सर, ५६ ."

अगर प्रोफ़ेसर ने आपसे आपका रोल नंबर पूछ लिया तो पूरी उम्मीद है की आप खतरे में हो |

दिन गुजरे , परीक्षा हुई , नतीजे आये | मैं उस सब्जेक्ट में फेल था | जैसे ही मुझे खबर मिली , मैं वापस उन्हीं प्रोफ़ेसर के पास गया | अभी दरवाजे पर पहुँच ही पाया था की भीतर से आवाज सुनाई दी | दो लोग आपस में बात कर रहे थे |

"रोल नंबर ५६ का क्या हुआ ?"

"होना क्या था , फेल है | बोल रहा था मुझे आपके सब्जेक्ट में इंटरेस्ट नहीं है |"

मैं दरवाजे से ही वापस आ गया |

ऐसा नहीं है कि वो सब्जेक्ट सिर्फ मुझे समझ नहीं आता था , आधी से ज्यादा क्लास परेशान थी | लेकिन सच बोलने की गलती सिर्फ मैंने की |

मुझे फेल होने का दुःख नहीं था , दुःख सिर्फ इस बात का था कि मैं पास होना चाहता था लेकिन मुझे मदद नहीं मिली |

कुछ दिन और गुजरे | एक रोज, रात को कोई लोहे की कील चप्पल फाड़कर मेरे पैरों में घुस गयी | सुबह-सुबह दौडकर अस्पताल गया | वहाँ नर्स ने देखते ही सबसे पहले मुझे टिटनेस का इंजेक्शन दिया , मेरी ड्रेसिंग की , मुझे दवाइयां दी और बोली कि मुझे तभी आ जाना चाहिए था , जब मुझे ये तकलीफ हुई थी |

मैं सिर्फ मुस्कुरा दिया , कुछ नहीं बोला लेकिन वापस लौटते समय पूरे रास्ते यही सोचता आ रहा था कि क्या हो अगर मरीज डॉक्टर को अपनी बीमारी बताए और डॉक्टर झुंझलाकर उसे कम करने के बजाय और बढाने वाली दवाई दे दे |

"डॉक्टर साब , मुझे जुकाम हुआ है |"

"बदतमीज , तेरी इतनी हिम्मत , डॉक्टर से जुबान लडाता है | तुझे जुकाम हो कैसे सकता है | नालायक , तेरी एक ही सजा है , ये ले इंजेक्शन | अब तुझे कैंसर होगा | तब तुझे पता चलेगा कि एक डॉक्टर को अपनी बीमारी बताने का क्या अंजाम होता है |"

अध्यापक भी तो विद्यार्थियों के लिए डॉक्टर ही होता है ?? है न ?

मुझे आज भी 'निकुम्भ' का इन्तेजार है |
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13 comments:

  1. ओह!!
    सच्चाई की कीमत चुकानी पड़ती है आकाश मगर निकुम्भ जरूर मिलते हैं...ये पक्का है ...

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  2. गड़बड़ मामला है गुरुजी का। वे भी बेचारे अपनी मर्जी के बिना आये होंगे यहां कहीं और न जा सकने के चलते।
    हौसला रखो। निकुम्भ सर मिलेंगे। तारे जमीं में भी पहली ही सीन में नहीं मिल गये थे निकुम्भ सर। :)

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  3. बिन गुरु ज्ञान कहाँ से पाऊँ ... ???

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  4. हमरे साथ भी हुआ था एक बार... आई.एस-सी. में केमिस्ट्री के किलास में पहिला दिन था अऊर प्रोफ़ेसर साहब बोर्ड पर लिख दिहिन ग्रुप 5A में N और ग्रुप 1A में भी N. हो सकता है कि ऊ गलती से लिखा गया हो. मगर कॉलेज में पहिला दिन का पढाई था, इसलिए हम उठकर बोल दिए कि सर नाइट्रोजन डू जगह कइसे आ गया? एतना सुनना था कि ऊ चिल्लाने लगे- चोरी करके पास किये हो क्या तुम? चोरी कर करके लोग एतना अच्छा कॉलेज को गंदा करने चला आता है! जबकि ऊ चाहते तो सौरी बोलकर N को Na बना सकते थे.
    उसके बाद एम्.एस-सी. तक ऊ भी रहे, हम भी. ऊ भुला गए सब बात. मगर हम आज तक नहीं भुलाए हैं. उनके लिए कोई श्रद्धा नहीं है मन में. वैसे भी ऊ प्रोफेसर नहीं थे नेता थे.
    निकुम्भ की तरह के भी शिक्षक होते हैं. मगर तुमरी घटना से लगता है कि जउन बिसय मन नहीं लगता उसको पढ़ना मोसकिल है वत्स, चाहे प्रोफ़ेसर निकुम्भ मिल जाएँ या कोई अउर! ऑल द बेस्ट!!

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  5. आकाश जी लगभग स्टूडेंट्स के साथ कुछ ऐसा ही होता हैं ..मुझे भी अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर खडूस ही मिले थे जिनको सिखाने के नाम पर शायद बहुत बड़ी आपति थी ... पर मैंने कभी उनको सच्च नहीं बोला था ..और हम जेसे-तेसे पास हो ही गऐ। :D

    मेरी नयी पोस्ट पर आपका स्वागत है
    http://rohitasghorela.blogspot.in/2012/12/blog-post.html

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  6. .
    सही कह रहे हैं आप.विचारणीय अभिव्यक्ति .बधाई
    प्रयास सफल तो आज़ाद असफल तो अपराध [कानूनी ज्ञान ] और [कौशल ].शोध -माननीय कुलाधिपति जी पहले अवलोकन तो किया होता .पर देखें और अपने विचार प्रकट करें

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  7. sach me bahut nirashajanak hai guru ka aisa vyavahar सार्थक प्रस्तुति . हार्दिक आभार हम हिंदी चिट्ठाकार हैं

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  8. हर स्कूल-कॉलेज में ये हाल है..एक दो सर/मैम ऐसे होते हैं..जिनको आता कुछ नही है पर नेता जरुर बनेगें...उनका ऊपर वाला ही भला करें..बाकि वो सर/प्रोफ़ेसर कहने लायक बिल्कुल नही होते...इसके उल्टा भी,हर कहीं निकुम्भ सर जैसे कोई ना कोई जरुर मिलता है... |
    आपको ढेरों शुभकामनाएँ.. :))

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  9. इस तरह का व्‍यवहार ... मन में अक्‍सर निराशा का भाव या खीझ उत्‍पन्‍न करता है
    पर होते हैं ऐसे लोग भी ... जहां कुछ अच्‍छे हैं तो कुछ इस विचारधारा के भी
    आपके विषय में आपको सफलता मिले ... यही शुभकामनाएं आपके लिये

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  10. सबसे अच्छी लगी यह वाली पोस्ट।

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  11. इस दर्द को महसूस करनेवाले संयमित निकुम्भ कम हैं .... और समझायेंगे भी कैसे,उन्हें खुद नहीं आता तो बेहतर है बच्चे को नीचा दिखा दो ! मेरे बेटे के साथ भी ऐसा हुआ था केमिस्ट्री में - जब मैंने शिक्षिका से पूछा कि क्या कमी है इसमें तो बोलीं - बेसिक ही नहीं पता है . उनके बोलने के अंदाज से मैं समझ गई कि इनसे बात करना बेकार है . बेटे को कहा - यही नंबर मायने नहीं रखते,खुद पर भरोसा रखो . और आश्चर्य होगा जानकार कि आगे दूसरी जगह उसी विषय में उसे 95 आया -

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