एक मुद्दा पल रहा है , आओ रोटी सेंकते हैं |
फिर गरीबों की गली में , रात भर रोया कोई ,
फिर शहर से एक भूखा , खुद-ब-खुद मिट जायेगा ,
फिर कहीं नारा उठेगा , मंदिरों का जोर से ,
मुल्क सारा इस ज़रा सी , बात पे बौरायेगा ,
तोड़ देगी दम कहीं , इंसान की लाज-ओ-शरम ,
और कहीं सुनसान में , एक आबरू लुट जायेगी ,
दिन में जो चेहरे , उठाएंगे किसी पर उँगलियाँ ,
रात में उनकी ही जैसे , आत्मा मर जायेगी ,
कान पर उंगली धरेंगे , मूँद लेंगे आँख को ,
कुछ नहीं बोलेंगे हम , घुटते हुए इंसाफ को ,
फर्ज की मिट्टी को देंगे , चुप के हाथों से जला ,
घोंट कर रख देंगे हम , इंसानियत का भी गला ,
रोज देखेंगे तमाशा , उसके घर की आग का ,
घर सुकूँ से चल रहा है , आओ रोटी सेंकते हैं |
दौर ये ही चल रहा है , आओ रोटी सेंकते हैं ||
पर पड़ोसी के यहाँ , फैली हुई इस आग को ,
आज न रोका , तो कल फिर , और ये बढ़ जायेगी ,
अब तलक जो आग , उनके घर की आफत थी , वो कल
और भी विकराल हो के , घर हमारे आयेगी ,
सबसे पहले घर जलेंगे , घर के संग में बस्तियाँ ,
देखते ही देखते , जलने लगेगा ये जहाँ ,
हम जो चुप बैठे थे कि , महफूज हैं इस आग से ,
किस तरह बच पाएंगे , दुनिया से बाहर भाग के ,
कल को जब अपने ही घर में , आग लग जायेगी, फिर
तब भला किस से कहेंगे , आओ रोटी सेंकते हैं ?
घर हमारा जल रहा है , आओ पानी फेंकते हैं ,
एक मुद्दा पल रहा है , आओ मिलकर देखते हैं |
.
@!</\$}{